इन्द्रियपराजयदिग्दर्शन | Indrayprajaydigdarshan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(६) किया गया है । क्‍योंकि इसमें मी आर्त्तध्यान रहा हुआ हे | यहाँ यह शंका उपस्थित हो सकती है कि, “ जब महानिशी- थादि सूत्रोंम और अन्य धर्मग्रेथों में ऐसा कहा गया है कि-द्रव्य- वान्‌ पुरुष, अपने नीतिपूर्वक उपार्जित द्रव्यसे जिनमंदिरादि बनवावे तो वह बारह स्वमैमं जाय, तव द्रव्यके लिये आत्तध्यान केसे दिखलाया ‡ । ” इसका उत्तर यह हेः-जिनमंदिरके बनवानेम जो बारहवें म्वर्गकी प्राप्ति दिःंडाइ हे, यह अपने विद्यमान द्रव्यका जिनमंदिस्के बनवानेभे सदुपयोग करे. इसके लिये । क्योंकि. अपनी विद्यमान लक्ष्मीका व्यय करनेम, इतने द्रव्य परमे मृच्छा उतरती हे-लोभकी न्यूनता हे।ती है । और मंदिरादिके बनवाने की आशासे भी द्र॒व्यक इकट्ठे करनेक्री इच्छा रखनेवालेकी लोभ- वृत्ति अधिक जाग्रत रहती है । एवं दमण विचार द्रव्यविषयदही रहते हैं| धनवृद्धि करानेके लिये उपदेशकी आवश्यकता नहीं रहती । वेसे विषयसेवनके लिये भी जीवके साथ अनादि काल्से कर्मबन्धके कारण रहे हुए हैं। जसे बच्चेकी स्तनपानकी क्रिया सिखानी नहीं पइती-वह स्वयं उसमे प्रवृत्त होता हे, उसी तरह जीव मोहनीयकम की प्रबलतासे क्रोध, मान, माया और छोभादि १६ कषाय, एवं हास्य, रति, अरति, भय, शोक, दुगंच्छा, स्री- चेष्टा, पुरुषचेष्टा ओर नपुंसकचेष्टादि करता दै । सिर्फ उसको धर्मदिक्षा देनेकी आवरयकता है । बस, इसी कारणसे शाखरकार विद्यमान द्रत्यकाही सत्कार्योमिं व्यय करनेकी आज्ञा करते हे । परन्तु द्रव्यके संग्रह करनेको नहीं कहते। क्योंकि द्रव्य आत्तेध्यानका कारण हे ।




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