खड़ी बोली कविता में विरह -वर्णन | Khadi Boli Kavita Me Virah Vardan

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Khadi Boli Kavita Me Virah Vardan by डॉ. रामप्रसाद मिश्र - Dr. Ramprasad Mishra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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८ ] | खडी सोली कान्य में विरह वणन [ हमार आचारयों तथा कबियों ने इसी एक रस पर भ्रधिक विवेचन तथा सजन किया अन्य प्रेम-भावों को गौण, उपेक्षित या त्याज्य वर्ग में रख दिया । अधिकांश श्राचार्यों ने देव, पृत्र-युत्री, सुति, गुरु, तूप आदि के प्रति प्रेम-भाव को भाव-ध्वीन के उपेक्षित कोण में डाल कर केवल दाम्पत्य-रति को रस-दशा तक पहुँचाने वाली प्रवति के रूप में प्रतिपादित किया । श्र गार के सर्वोपरि महत्व को स्वीकार करते हुए भी हम यह नहीं मानते कि शगार समग्र प्रेस का दोतक है, तथा संतान, ईश्वर, गुरु, देश इत्यादि के प्रति प्रेम रस-दरशा तक नहीं पहुँच सकता । आाचारयों तथा कवियों के श्यूगार भाव पर ध्यान केद्रित कर देने के कारण हमारे साहित्य में भ्रन्य प्रेम-भावताओं का चित्रण हआा जिससे उसकी हानि हुई । श्र गार को प्रेम मानने तथा अन्य स्वेह-संवंधों को भाव-गात्र घोषित करने से विवेचत ओर काव्य-रचता में प्रेम की विराटता को व्यवधान पहंचा। संस्कृत में श्र गार, वीर, करुणा, इन तीन रसों की ही प्रधानता हो गई । हिंदी के विकास में संतों का योग अ्रधिक रहा है, अतः इसमें भक्ति की धारा भी प्रवाहित हुई । कितु ' सससिद्धांत के अनुयायी कवियों ने अन्य प्रेम-भावनाओं के प्रति अधिक उत्साह नहीं दिखलाया । रीतिकाल का काव्य इसका प्रत्यक्ष निदर्शन है कितु हिंदी का विकास अपनी विशेष जलवायु में हुआ है। उसने संस्कृत से प्रेरणा लेते हुए भी उसका अ्नुकरणा-मात्र करके संतुष्ट होना नहीं सीखा। फलत हिंदी में संतान एवं ईश्वर के प्रति प्रेम-भावना के जो विशद एवं भ्रमर वणन हए है वे संस्कृत की शास्त्रीय सीमाओं में नहीं आ सकते। संस्कृत में भोज, सुनींद्र एवं विश्वनाथ के भ्रतिरिक्त सभी आचार्यों ने वात्सल्य की रस-स्थिति नहीं स्वीकार की। भोज, मुनींद्र एवं विश्वनाथ में से विशद थास्त्रीय निरूपण केवल, विश्वनाथ में प्राप्त होता है, जिन्होने साहित्य-दर्पण में वात्सल्य के विभाव, अनुभाव एवं संचारी भावों का उल्लेख करते हुए कालिदास के रपुवंशम्‌ से संयोग-वात्सल्य का एक उदाहरण भी दिया है । कितु वियोग-वात्सल्य का कोई उल्लेख था उदाहरण उन्होंने भी नहीं दिया । सच पूछा जाय तो संस्कृत में वात्सल्य को रस की गुरुता मिली ही नहीं | रामायण, रधुवंश, शाकु तलम्‌, मागवत प्रभृति ग्रंथों में संयोग एवं वियोग वात्सल्य के वर्शात हुए अवश्य हैं, पर हमारे झ्राचायों ते उधर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया। हिंदी में महाकवि सूरदास की वात्सल्य रस के क्षेत्र में संसार की अनुपम प्रतिभा ने वात्सल्य की रस-स्थिति में कोई व्यववान नहीं रहने दिये । यद्यपि परंपरावादी रीतिकालीन आचारयों ने वात्सल्य की रस-सत्ता स्वीकार नहीं की, कितु आधुनिक विद्वानों ते उसे. एक स्वर से रत की स्थिति प्रदाव की है। हो सकता है, यदि संस्कृत में सूर, तुलसी




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