अनुत्तर योगी | Anuttar Yogi

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Anuttar Yogi by वीरेंद्र कुमार जैन - Virendra Kumar Jain

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about वीरेंद्र कुमार जैन - Virendra Kumar Jain

Add Infomation AboutVirendra Kumar Jain

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
१० - ` ` शरीर बहुत कम हो गया। ईहा और कषाय मुझे कस नहीं पाते थे ` ` ` तो मेरी वह्‌ देह विसर्जित होकर, सहखार स्वगं के अपरूप कमनीय देव के रूप मे जन्मी । ` ` ` दिव्यांग कल्प-वृक्षों तले आलोटते, हर इच्छा सहज तृप्त होती । इस स्निग्धता मे एक विचित्र मुत्यु-सी अनुभव होती ! सहस्रो कल्पो कौ आयु असह्य लगी । ` - उत्तीर्णं था भीतर । नियत म॒हूतं मे जन्मान्तर से गुजरा । जम्बूद्रीप की जम्बु-श्याम कसैली धरती ने फिर खींचा । छत्ना नगरी का. नंदन राजा, मैं। राजैश्वयं सहज ही भोगते बनता है ¦ भोग, एसी कोई संवासना मन मे नहीं है । अपना या बिराना, जैसा कुछ लगता नहीं । जो है ठीक है, अपनी जगह पर है। मैं अपनी जगह पर हूँ । अपने आप से ही तुष्ट हूँ । कण-कण अपना ही लगता है । सकल चराचर को सहज देखता हूँ, जानता हूँ, यथार्थ स्वरूप मैं पहचानता हूँ । सब का अवबोधन अव्याबाध है, शुद्ध है । जैसे अपने और सवे के विशुद्ध दशन में जीना चल रहा है । निरावेग, सरल, ऋजुगति से बहती कोई नदी हूँ । कहाँ जाना है, क्या करना है, इसकी कोई सतकंता नही, संकल्प भी नहीं । सो विकल्प भी नहीं । नदी जो तटवर्ती कण-कण की वललभा है, माँ है। सर्वोदिय और सर्वकल्याण के अतिरिक्त और कोई काम्य अब शेष नहीं । * ` ` एक दिन वन-विहार मे देखा, प्रकृति के केन्द्र मे एकं प्रकृत पुरुष निश्चल खडा है । जातरूप नग्न । उस पूरुष के जआभावलय मे सारी प्रकृति अनावरित होती- सी लग रही है । कण-कण पारदर्शी हो उठा है । ` ` ` रहस्य खुलते ही चले जा रहे हैं। जानने और देखने का अन्त नहीं । ` ` ` उस पुरुष को देखकर मेरे शरीर के वस्त्राभरण यौ उतर गये, आपोआप, जैसे ऋतुकाल पाकर सपं की कचुकी अनजाने ही उतर गई है ।' ' “और मैं भीतर की राहु अनन्त में अतियात्रित हो चला । ` ` ` उस भीतरी यात्रा में कहीं एक पद्म का द्रह आया । उषा का सरोवर था वह जैसे । अनुराग के इस सूक्ष्म गुलाबी जल में अपने को डूबता, तरता पाया । ओर जाने कब आत्म-विस्मत हो गया । देख रहा हूँ : एक सुनील जलकान्त स्फटिक कक्न मे, एक अपूव सुरभित शेयामेसे अंगड़ाई भर कर जाग उठा हूँ । विचित्र है नीलाभ नीहार का यह महीन कक्ष, जो चारों ओर से बन्द है | उठते ही संचेतना-सी' हुई, यह स्वर्ग का उपपाद कक्ष है। इसकी महाघे शैया में से मैं देव के रूप में जन्मा हूँ । ` ` ˆ अच्युत स्वर्ग का इन्द्र-मैं-अच्युतेन्द्र | और मेरे गले में ठीक मेरे शरीरा के ही द्रव्य और वर्णं




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now