इन्द्रियपराजदिग्दर्शन | Indrayprajaydigdarshan
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2 MB
कुल पष्ठ :
72
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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किया गया है । क्योंकि इसमें मी आर्त्तध्यान रहा हुआ हे |
यहाँ यह शंका उपस्थित हो सकती है कि, “ जब महानिशी-
थादि सूत्रोंम और अन्य धर्मग्रेथों में ऐसा कहा गया है कि-द्रव्य-
वान् पुरुष, अपने नीतिपूर्वक उपार्जित द्रव्यसे जिनमंदिरादि बनवावे
तो वह बारह स्वमैमं जाय, तव द्रव्यके लिये आत्तध्यान केसे
दिखलाया ‡ । ” इसका उत्तर यह हेः-जिनमंदिरके बनवानेम जो
बारहवें म्वर्गकी प्राप्ति दिःंडाइ हे, यह अपने विद्यमान द्रव्यका
जिनमंदिस्के बनवानेभे सदुपयोग करे. इसके लिये । क्योंकि.
अपनी विद्यमान लक्ष्मीका व्यय करनेम, इतने द्रव्य परमे मृच्छा
उतरती हे-लोभकी न्यूनता हे।ती है । और मंदिरादिके बनवाने
की आशासे भी द्र॒व्यक इकट्ठे करनेक्री इच्छा रखनेवालेकी लोभ-
वृत्ति अधिक जाग्रत रहती है । एवं दमण विचार द्रव्यविषयदही
रहते हैं| धनवृद्धि करानेके लिये उपदेशकी आवश्यकता नहीं
रहती । वेसे विषयसेवनके लिये भी जीवके साथ अनादि काल्से
कर्मबन्धके कारण रहे हुए हैं। जसे बच्चेकी स्तनपानकी क्रिया
सिखानी नहीं पइती-वह स्वयं उसमे प्रवृत्त होता हे, उसी तरह
जीव मोहनीयकम की प्रबलतासे क्रोध, मान, माया और छोभादि
१६ कषाय, एवं हास्य, रति, अरति, भय, शोक, दुगंच्छा, स्री-
चेष्टा, पुरुषचेष्टा ओर नपुंसकचेष्टादि करता दै । सिर्फ उसको
धर्मदिक्षा देनेकी आवरयकता है । बस, इसी कारणसे शाखरकार
विद्यमान द्रत्यकाही सत्कार्योमिं व्यय करनेकी आज्ञा करते हे । परन्तु
द्रव्यके संग्रह करनेको नहीं कहते। क्योंकि द्रव्य आत्तेध्यानका
कारण हे ।
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