अर्थविज्ञान और व्याकरणदर्शन | Arthvigyan Aur Vyakarandarshan

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Book Image : अर्थविज्ञान और व्याकरणदर्शन  - Arthvigyan Aur Vyakarandarshan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १० ) प्ैंकति-प्र्यय के विभाजन को करते हुए भी सन्धि सिखाता है, वियद मे भी सन्धि का प्रकार बताता है, इन्द्र (वोरध, विवाद) में भी समाहार (एकत्व, एकता) सिखाता है, व्यपेज्ञाभाव (पारस्परिक-सहयोग) समास के साथ एकरार्थमाव रुखास (एकलक्ष्यता,एक- उद्देश्यता) सिखाता है। आकृति के साथ ही द्रव्य को पदार्थ मानना सिखाता है, मौतिक- वाद के साथ ही आत्मवाद और ब्रह्मवाद की शिक्षा देता है, जाति और व्यक्ति दोनों को ही पदार्थ मानना सिखाता है। न जाति की उपेक्षा की जा सकती है और न व्यक्ति की | जाति की सिद्धि द्वारा वेयाकरण जिस लक्ष्य पर पहुँचते हैं, वह है कि व्यक्ति जाति का अंग है, जाति नित्य है श्रोर व्यक्ति अनित्य, जाति सत्य है और व्यक्ति असत्य । व्यक्ति जाति का अ्रंग है, अंग अंगी के लिए. है, व्यक्ति जाति के लिए है, व्यक्ति सर्माष्ट के लिए है, व्यक्ति समाज. का एक अंग है, वह समाज की सेवा के लिए है, व्यक्ति राष्ट्र का एक अंग है, अतः राष्ट्र की सेवा उसका कत्तंव्य है | वेयाकरण इतने से सन्तुष्ट नहीं होते हैं, वे पदवाद पदस्फॉट को भी चुटिपूर्ण सममते हैं, वे जातिवाद को भी प्रथक करके शुद्ध नहीं सममते हैं, वे वाक्यस्फोट की सिद्धि करके यह सिद्ध करते हैं कि जातिमेद से, राष्ट्र मेद से, समाजमेद से सैकड़ों अ्नर्थ होते हैं । जिस प्रकार व्यक्ति जाति का एक अंग है उसी प्रकार जाति, राष्ट्र ओर समाज वाक्य के एक अंग हैं, विश्व के एक अंग हैं। उन्हें विश्व के हित के लिए श्रपना श्रस्तित्व रखना चाहिए, विश्व-हित में ही अपना हित निहित समझना चाहिए। विश्व-शान्ति, विश्व-बन्ध॒त्व, विश्व-घर्म, विश्व-संस्कृति एवं विश्व को ही अखण्ड और निरवयव तथा अ्निर्वेचनीय शब्द-ब्रह्म का एकमात्र प्रतिनिधि सममना चाहिए | वैयाकरणो ने एक इस सस्य का निर्वाह किया ह जिसको भगवान्‌ इष्ण ने कहा दै कि न बुद्धमेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम्‌? › कर्मयोगियों में बद्धिमेंद उत्पन्न न करे । श्रैतएष वैयाकरण क्ञानियौं के लिए प्रतिभां की पाप्ति उदेश्य बताते ई तथा कम॑थोगिर्यो के लिए क्रिया, कर्मर्यता, कर्मठता एवं निष्काम॑माव से कमं करने की रिक्ता देते । पतञ्जलि एवं भवृ दरि ने उक्तं प्रकार से विभेदों में अस्ेद और अनैकताओं में एकता को समाया है । यदि सारं वेद, सारे दशंन, समस्त व्याकरण, समस्त ज्ञान, विज्ञान, अन्वेषण, श्रनुसंधान श्रौर सर्वतोमुखी विकास होने परमभी विश्व म शान्ति, सुख, ज्ञान, एकता, प्रेम, अहिंसा और सत्य की तिद्धि नहीं होती है तो इसका सारा कलंक वेद, दर्शन, ज्ञान, विशान, अनुसंधान और तथाकथित सवतोमुखी विकास पर है और मुख्य रूप से उनके अनुयायियों पर हे । यह शब्दब्रह्म और अर्थत्रह्म दोनों का अनादर और .श्रपमान है। शब्दतत्त्त की रक्षां के लिए अथतत्त्व ( सृष्टि ) है और अथंतत्व की रक्षा के लिए १. सत्यासत्यौ तु यौ भावौ प्रतिभाव॑ व्यवस्थितौ । सत्य॑ यत्तत्र सा जातिरसत्या व्यक्तयः स्मृताः ॥ ( वाक्य० ३; पृष्ठ रन} २० गीता : ३. २६,




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