अन्तकृद्दशासूत्र | Antakriddashasutra

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Antakriddashasutra by मिश्रीमल जी महाराज - Mishrimal Ji Maharaj

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about मिश्रीमल जी महाराज - Mishrimal Ji Maharaj

Add Infomation AboutMishrimal Ji Maharaj

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
शैली प्रस्तुत भागम की रचना कथात्मक शैली मे की गई है, इस शैली को प्राचीन पारिभाषिक शब्दावली में “कथानुयोग' कहा जाता है। इस शैली मे “तेण कालेण तेण समएण” इस शब्दावली से कथा का प्रारम्भ किया जाता है । आगमो मे जाताधमंकथा, उपासकदशाग, श्रनुत्तरौपपातिक, विपाकसूत्र श्रौर भरन्तङृहुशाश सूत्र का इसी शैली में निर्माण किया गया है । प्रध॑मामधी भाषा मे शब्दो के दो रूप उपलब्ध होते हैं--परिवसति, परिवसइ, रायवण्णतो, रायवण्णप्रो, एमबीसाते, एगवीसाएं । इस झगम मे प्राय स्वरान्तरूप ग्रहण करने की शैली को अपनाया गया है । श्रागमी मे प्राय सक्षिप्तीकरण की शैली को प्रषनाते हुए शब्दन्ति मे बिन्दुयोजना द्वारा श्रयवा जक योजना द्वारा श्रवशिष्ट पाठ को व्यक्त करने की प्राचीन शैली प्रचलित है। भ्रागमोदय समिति द्वारा प्रकाषित 'अ्रम्तकृदशाग सूत्र” मे इसी शैली को अपनाया गया था, किन्सु श्री श्रमोलक ऋषिजी महाराज स्मारक ग्रन्थमाला द्वारा प्रकाशित 'भन्तकृदशाग सूत्र” में पूर्ण पाठ देने की शैली को स्वीकार किया गया है। इस शैली की वाचनामे प्रत्यन्त सुविधा रहती है। इसी सुविधा को लक्ष्य मे रखते हुए मूल पाठ को पूर्णरूपेण न्यस्त करने की शैली' हमे भी श्रपनानी पडी है। दस सूत्र मे यथास्थान श्रनेक तपो का वर्णन प्राप्त होता है, ्रष्टम वर्गं मे विशेषसूपो से तपोकै स्वरूप एव पद्धतिथो काः विस्तृत विवेचन करिया गया है । इन तपो के श्रनेकविघ स्थापनायन्त् प्राप्त होते हैँ । हमने उन समस्त स्थापना-यन्त्रो को कलात्मकं रूप देकर भराकषंक बननि का प्रयास क्रियादहै। प्रस्तुत ग्रन्थ की वणेनशैली प्रत्यन्त व्यवस्थित है। इसमे प्रत्येक साधक के नगर, उद्यान, वैत्य-व्यतरायतन, राजा, माता-पिता, धर्माचा्यं, धमंकथा, इहलोक एव परलोक की ऋद्धि, पाणिग्रहण भ्रौर भीतिदान, भोगोका परित्याग, प्रव्नज्या, दीक्षाकाल, श्रुतग्रहण, तपोपधान, सलेखना श्रोर भ्रन्त क्रिया का उन्लेख किया गया है । 'ग्रन्तगडदशा' मे वणित साधक पात्रों के परिचय से प्रकट होता है कि श्रमण भगवान्‌ महावीर के शासन में विभिन्न जाति एव श्रेणी के व्यक्तियों को साधना में समान श्रधिकार प्राप्त था। एक श्रोर जहाँ बीसियो राजपुत्र-राजरानी और गाथापति साधनापथ मे चरण से चरण मिला कर चल रहे थे, दूसरी झोर वही कतिपय उपेक्षित व्गवलि क्षुद्र जातीय भौ ससम्मान इस साधनाक्षेतर मे प्राकर समान रूप से झ्रागे बढ रहे थे । वय की दृष्टि से झ्रतिमुक्त जैसे बाल मुनि और गजसुकुमार जैसे राज-प्रासाद के दुलारे দিন জান वाले भी इस क्षेत्र मे उतर कर सिद्धि प्राप्त कर गये । भरन्तगडदशा सूत्र के मननसेज्ञात होता है कि गौतम श्रादि, १८ मुनियो के समान १२ भिक्षु प्रतिमा एव गुणरत्न-सवत्सर तप की साधना से भी साधना कमे-क्षय कर मुक्ति लेता है। प्राप्त कर प्रनीकसेनादि मुनि १४ पूर्व के शान में रमण करते हुए सामान्य बेले बेले की तपस्था से कर्मक्षय कर मुक्ति के भ्रधिकारी बन गए । प्रजु ममाली ने उपशम भाव-क्षमा की प्रधानता से केवल छह मास बेले बेले की तपस्या कर सिद्धि प्राप्त कर ली । दूसरी भोर ध्रतिमुक्त कमार ने ज्ञान-पूर्वंक गुण-रत्न तप की साधना से सिद्धि मिलाई और गजसुकुमाल ने बिना शास्त्र पढ़े प्रौर लम्बे समय तक साधना एवं तपस्या किए बिना ही केवल एक शुद्ध ध्यान के बल से ही सिद्धि प्राप्त करली । इससे प्रकट होता है किं ध्यान भो एक बडा तप है। काली प्रादि रानियो ने सयम लेकर कठोर साधना की झौर लम्बे समय से सिद्धि भिलाई । इस प्रकार कोई सामान्य तपसे, कोई कठोर तप से, कोई क्षमा की प्रधानता से तो कोई प्रन्य केवल प्रात्मध्यात की प्रित से कर्मों को कोक कर सिद्धि के श्रधिकारी बन गए । [ १७ ]




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now