गऊ - वाणी | Gaoo - Vani

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Gaoo - Vani  by ऋषभ चरण जैन - Rishabh Charan Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ७9 ) डालती हैं | आत्मासे तो उनका मिलाप कहीं दूर श्रम्दर जाकर होता है। अर यह भी नहीं हे कि आत्मा ही चक्ुदारा बाहर निकल खड़ा होता है। ओर यदि ऐसा दो भो तो भी उसको दर्शन केसे हो सक्ता है? अतः जब आत्मा जहांका तहां है और बाहिरी दुनियां भी जह्ांकी तहां है ओर केवल कुछ सूच्तम परमार ही वाहरसे आत्मा तक पहुंछते हैं तो क्या यह करथ्पा नहीं है कि आत्मा भीतर बैठे बेठे ही सब कुछ देख सक्ता है । यथार्थता यष है कि दशन भी ज्ञीवद्रव्यकी पर्याय है, बाहिरी इन्ड्रियोत्तेज्रऋ सामग्रीके श्राश्रव पर जो परिवतेन अःत्मामें दोत्ता हे उसी अनुसवदा ताम दशन है। शोर शव अगर तुम इस वःत पर विजार करोगे क्रि यह परिवनेत आत्मामें सर्व देश नहीं ह!ता है बल्कि केवल उप्यके एक देशमें होता है ओर वह भी उसने हीमें जितनेसे चत्तु इन्द्रियकी भीतरी सूतच््म ताडियोंका सम्बन्ध है तो तुम इस वालकी सहजमें ही মক আগত কি আছি शात्पाकी प्रकाशशक्ति पक देश ही नहीं बिक सर्वाय व सर्व देशप्रें जाग्रत हो जाय तो कितना अपूर्व व नन्त दशेत उसको होगा! अत; प्रत्येद्ष आत्मा स्वमावसे है| अनन्त दानक गुणस भी पूरित है श्रोर घडी श्रदुभुत बात यह दे कि अन्‍्तरीक्ष दशन संसार के কি) प्रदाथाका ज्याह्ा त्यों जहाऊा तहां रशांता है मैंने तिनय किया!--कि माता यद्द तो में भली प्रकार समस गया कि हर शआत्मा स्वभाघसे ध्मर ओऔर स्यश्च हे परः श्रव में यह जानना चाहता हं कि श्रात्माक्रो अविनाशी सुख मी कया किसी भांति प्राप्त हो सकता है ?




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