ध्यान योग रूप और दर्शन | Dhyan-yog Rup Aur Darshan

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Dhyan-yog Rup Aur Darshan by नरेन्द्र भानावत - Narendra Bhanawat

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ध्यान : एक अध्ययन १७ इस प्रकार का शुद्धिकरण पूर्वक स्थिरीकरण सूचार्थ-चिन्तन प्रथम प्रहर से श्रौर द्वितीय प्रहर में ध्यान । रात्रि के कार्यक्रम में भी इसी प्रकार का विधान किया गया है । यह ध्यान सूत्राथ के चिन्तन-मनत मे ही हो सकता हैं न कि चित्त वृत्तियों के नितान्त निरोध के रूप में । जैन परम्परा की ब्यान परिपाटी के अनुसार किसी एक विषय पर त्ह्लीनता से चिन्तन करना ध्यान का प्रथम प्रकार है । इसे सविकल्प ध्यान तथा स्थिरैक भाव रूप ध्यान के दूसरे प्रकार को मिविकट्प ध्यान कहते हैं । शुबल ध्यान में ही ध्यान की यह निर्धिकल्प दशा हो सकती है । शरीर की अस्यान्य क्रियाओं के चलते रहने पर भी यह ध्यान निर्वाध गति से लता रहता है, ऐसा जैन शास्त्रों का मन्तव्य है। सविकरप ध्यान धर्म ध्यान के झाणा विजए, श्रवाय विजए, विवाग विजए झौर सठाण विजए-- इन चार भेदो' का उह्लेख करते हुए पहले बताया जा चुका है कि उनमें क्रमशः आज्ञा, रागादि दीपो , कर्म के शुभाशुस फल आर विश्वाधार भूत लोक के स्वरूप पर विचार किया जाता हैं तथा निर्विकल्प शक्ल ध्यान में आत्म-स्वरूप पर ही विचार किया जाता हे 1 ध्याव के प्रसेद : प्रकारान्तर से ब्यान के श्रल्य प्रभेद थी किये गये हैं । जैसे १. पदस्थ, २. पिण्डस्थ, रे स्वरूपस्थ झौर ४. रूपातीत 1 १, पिण्डस्थ ध्यान मे-पार्थिवी आदि पंचबिध धोरणा में सेरुगिरि के उच्चतम शिखर पर स्थित रफटिक-रत्न के सिंहासन पर विराजमान चस्व्सम समुज्ज्वल अरिहन्त के समान शुद्ध स्वरूप में सात्मा का ध्यान किया जाता है । २. दूसरे पदस्थ ध्यान में अर” आदि मन्त्र पदों का नासि या हृदय में श्ष्टदल--कमल श्रादि पर चिन्तन किया जाता है 1 ३. तीसरे रूपस्थ ध्यान में झ्नन्त चलुष्टय युक्त देवाधिदेव श्ररिहन्त का चौतीस झ्रतिशयों के साथ चिन्तन किया जाता है । निराकार ध्यान को कठिन और असाध्य समझकर जो साधक किसी आकृति विशेष का झालम्बन लेना चाहते है उनके लिये भी अपने इप्ट




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