निशीथ सूत्र | Nishitha Sutra

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Nishitha Sutra  by कन्हैयालाल - Kanhaiyalalगीतार्य श्री तिलोक मुनि जी -Geetarya Shri Tilok Muni Jiमिश्रीमल जी महाराज - Mishrimal Ji Maharaj

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गीतार्य श्री तिलोक मुनि जी -Geetarya Shri Tilok Muni Ji

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मिश्रीमल जी महाराज - Mishrimal Ji Maharaj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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लघुमासिक प्रायश्चित्त जघन्य एक एकासना, उत्कृष्ट २७ उपबास है। गुरुमासिक प्रायश्चित्त जघन्य एक निबी (दो एकासना), उत्कृष्ट ३० उपवास है । लघुचौमासी प्रायश्चित्त जधन्य एक आयम्बिल' (या एक एकासना), उत्कृष्ट १०८ उपवास है । गुरुचौ मासी प्रायश्चित्त जघन्य एक उपवास (चार एकासना), उत्कृष्ट १२० उपवास है । उक्त दोषो के प्रायर्चित्तम्थानो का बारम्बार सेवन करने पर अथवा उनका सेवन लम्बे समय तक चलता रहने पर तप-प्रायश्चित्त की सीमा बढ जाती है, जो कभी दीक्षाछेद तक भी बढ़ा दी जा सकती है । कोई साधक बडे दोष को गुप्त रूप में सेवन करके छिपाना चाहे श्रौर दूसरा व्यक्ति उस दोष को प्रकट कर सिद्ध करके प्रायश्चित्त दिलवावे तो उसे दीक्षाछेद का ही प्रायश्चित्त आता है । ७. दूसरे के द्वारा सिद्ध करने पर भी अत्यधिक भूठ-कपट करके विपरीत आचरण करे श्रथवा उल्टा चोर कोतवाल को डाटने का काम करे किन्तु मजबूर करने पर फिर सरलता स्वीकार करके प्रायश्चित्त लेने के लिए तैपार होवे तो उसे नई दीक्षा का प्रायश्चित्त दिया जाता है । ८, यदि उस दुराग्रह मे ही रहे एव सरलता स्वीकार करे ही नही तो उसे गच्छ से निकाल दिया जाता है । +< ० ५ ~^) ~= न्दी सूत्रों की गोपनीयता कोई भी ज्ञान या आगम एकान्त गोपनीय नहीं होता है, किन्तु उसकी भी अपनी कोई सीमा प्रवश्य होती है। मूल आगमो में कही भी किसी भी सूत्र को गोपनीय नहीं कहा गया है। केवल इतना श्रवश्य कहा गया है कि योग्यताप्राप्त शिष्य को क्रम से ही सूत्र एवं उनके अर्थ परमार्थ का अध्ययन कराना चाहिए । श्रयौग्य को या क्रम-प्नप्राप्त को किसी भी शास्त्र का अध्ययन नही करना चाहिए, क्योकि उपे श्रध्ययन कराने पर अध्यापन कराने वलि को निशीधसूव्र उटेणक १९ के अनुसार प्रायश्चित्त भाता है, साथ ही योग्यताप्राप्त ओौर विनीत शिष्यो को यथाक्रम से अध्ययने नही कराने पर भी उन्हे मूत्रोक्त प्रायरिचत्त राता है । इस प्रकार यह सहज ही स्पष्ट हौ जाता है कि योग्य साधु-साध्वियो की अपेक्षा कोई भी भ्रागम गोपनीय नही होता है । आगमौ मे १२ अगसूत्रोमेसे साध्वियो को ग्यारह अगसूत्रो का अध्ययन करने का वणन आता है । साधुओं को १२ ही अगो का अध्ययन व'रने का वर्णन आता है एवं श्रावकों को भी श्रुत का गअ्रध्ययन एवं श्रुत के उपधान का वर्णन झ्राता है। तीर्थंकरों की मौजूदगी में द्वादशागी श्रुत ही था, शेष सूत्रो की सकलना कालातर मे हुई यह निविवाद है । इस प्रकार प्रागम गोपनीय होते हुए भी तीर्थंकरो के समय भी अग शास्त्रों का साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका चतुविध सष अध्ययन करता था। चौदहपूर्वी भद्रबाहु-रचित व्यवहारसूत्र मे भी प्राचारप्रकरल्प के अध्ययन-अध्यापन को अत्यधिक महत्त्व दिया गथा है । प्रत्येक युवक सत सती को इसका कठस्य होना आवश्यकं कहा है, हसते इसकी अतिगोपनीयता का जो वाता- वरण ह, वहे भावशष्यक प्रतीत नही होता है । इस प्रकार नि्ीयसूत्र या श्रन्य सूत्रो का अध्ययन भी चतुविध सधमे प्राचौनकाल से प्रचलित था। कालातर मे जआगमलेखन-युग एव फिर ॒व्याख्यालेखन-युग भौर भ्रब प्रकाशनयुग आया है । परागमो का लेखन प्रर प्रकाशन समय-समय पर हुभा भौर हो रहा है । देश-विदेश मे भी इनकी लिखित गौर प्रकाशित प्रतियो ( १६ )




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