काले फूल का पौधा | Kale Fool Ka Paudha
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
14 MB
कुल पष्ठ :
254
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)काले फूल का पोदा १७
बँधी है, ओर मेरी गति भी । में मद से चाहती हूँ कि मे जो कुछ सोचती
हैं, सत्य समभती हूँ, उसे तुम्हारी तरह स्पष्ट रूप से कह दू । लेकिन
में हार जाती हूं । न जाने क्या भीतर से मुझे बाँध लेता है, और में
असहाय रह जाती हूँ ।”
गीता एकाएक चुप हो गयी '
“तो इस से क्या ?” सरोज ने कहा ।
“क्यो नही, में हिम्मत कर अपने वैवाहिकं जीवन के एक दिन
को तुम्हें सुनाना चाहती थी, लेकिन न सुना सकी संस्कारों ने मुझे
पस्त कर दिया, और अचन््त में मेने उसे फाड़ डाला !”
“हछेकिन उसकी बात तो बता दो ! ”
गीता कुछ बोली नही । उसने सरोज के हाथ से उस टुकडे को ले
लिया और हथेली में मल कर उसे धूल कर दिया ।
धूल ऑधी के पख पर उडती ह, आंधी सन्नटे की गोद मे । गीता
को चेतना का यही पथ था ।
नीचे ऑगन से पापा, माताजी और मंगल की सम्मिलित आवाज
आने लगी । बीरू सीढियो से दौड़ता हुआ ऊपर कमरे में आया, और फूलती
हुई सॉसों मे कहने लगा-- जिया, जीजा आगये, जीजा ! ”
“क्या ?” गीता के ভলহ में कातरता थी ।
“लखनऊ से जीजा आं गये { “
और बीरू नीचे भाग गया । गीता लजाकर ठगी-सी रह गयी । सरोज
मुस्करा दी, “कितना मानते हे तुके ! चार दिन भी उन्हें अकेले चेन
नही मिलता ! इसी को मिले हुए पति-पत्नी कहते हे ।”
“और जुडे हुए ?” गीता ने दरमा कर पूछा |
“हम लोग थे ! ” सरोज ने बिल्कुल सहज भाव से कहा आर वह
कमरे से बाहरः जाने रूंगी । चली ययी ।
गीता कमरे मे निरचेष्ट खडी थी । 'बहूत तेजी से उसकी जलो मे
रेंग उभर रहे थे, और उनमे अनन्त छोटी-छोटी रेखाये--जिनके केन्द्र-
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