रूपाजीवा | Roopajeewa

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Roopajeewa by लक्ष्मीनारायण लाल -Laxminarayan Lal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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रूपाजीवा : बड़ा रूपया ११ और समूची बस्ती में ये जेसे छाई हुईं थीं। ज़्यादा नहीं, केवल एक घण्टे के लिए दिन में कोई बिना हाथ-पेर हिलाये-डुलाये बेटा रह जाय तो मक्खियाँ उसकी सूरत बदल सकती थीं। और बस्तीको बड़ा नाज़ भी था अपनी इन सक्खियों पर । कहते थे ल्लोग-- जहाँ गुड़ आटा धी वहीं सकि जी! लेकिन उस घर सें मक्खियों का स्वागत कम था । चौके में जालियाँ, मालिक और मालकिन के घर में जालियाँ; फिर भी उनके लिए माम की क्या कमी--जितना ही खुला था, उतना दी सक्‍्खियोँ के लिए काफ़ी था। घर के पिछुवाड़े एक खिड़की थी--ठाकुरद्वरे की गली में खुलने वाली । खिड़की के उस अन्तिम कमरे में भी कैचल उत्तनी ही जगह बची थी कि कोई आ-जा सके । वेसे इस कमरे में खाली बोरे रहते थे, ओर दूसरी ओर हृटी कुश्सियाँ और खाठें भर रखी थीं । बाहर से देखने में यह घर और दुकान दोनों एक थे, एक ही में थे , लेकिन वस्तुतः दोनों की सत्ताएँ अलग-अलग थीं। दुकान ही सब- , कुछ थी, घर तो जैसे उसका केवल गोदाम-सान्र था। दुकान ही प्रु था जैसे, घर तो केवल दास था। और इस सूत्र में भी अन्तर यह था कि दोनों पैसे एक-दूसरे से अविष्छिन्न थे, स्वतन्त्र, निर्विकार--जैसे » पुक-दूसरे से रूढे हुए, एक-दूसरे से उपेक्षित । बन्द दरवाज़े के भीतर घर सो रहा था, लेकिन दरवाज़े के बाहर, दुकान की गद्दी, गद्दी का टेलीफोन, व्यापार और उ्यापार का ततियन्ता, जैसे सब जग रहे थे । ओर वहाँ, जहाँ बन्द दरचाज़े के सीतर घर सो रहा था, आँगन के बड़े कमरे में न जाने कब से कोई नन्दा-ला बच्चा चीख रहा था, जैसे पूरे घर में उसे कोई सुनने वाला ही न था। दो बच्चियाँ थीं, के अलग




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