काले फूल का पौधा | Kale Fool Ka Paudha

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Kale Fool Ka Paudha by लक्ष्मीनारायण लाल -Laxminarayan Lal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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काले फूल का पोदा १७ बँधी है, ओर मेरी गति भी । में मद से चाहती हूँ कि मे जो कुछ सोचती हैं, सत्य समभती हूँ, उसे तुम्हारी तरह स्पष्ट रूप से कह दू । लेकिन में हार जाती हूं । न जाने क्‍या भीतर से मुझे बाँध लेता है, और में असहाय रह जाती हूँ ।” गीता एकाएक चुप हो गयी ' “तो इस से क्‍या ?” सरोज ने कहा । “क्यो नही, में हिम्मत कर अपने वैवाहिकं जीवन के एक दिन को तुम्हें सुनाना चाहती थी, लेकिन न सुना सकी संस्कारों ने मुझे पस्त कर दिया, और अचन्‍्त में मेने उसे फाड़ डाला !” “हछेकिन उसकी बात तो बता दो ! ” गीता कुछ बोली नही । उसने सरोज के हाथ से उस टुकडे को ले लिया और हथेली में मल कर उसे धूल कर दिया । धूल ऑधी के पख पर उडती ह, आंधी सन्नटे की गोद मे । गीता को चेतना का यही पथ था । नीचे ऑगन से पापा, माताजी और मंगल की सम्मिलित आवाज आने लगी । बीरू सीढियो से दौड़ता हुआ ऊपर कमरे में आया, और फूलती हुई सॉसों मे कहने लगा-- जिया, जीजा आगये, जीजा ! ” “क्या ?” गीता के ভলহ में कातरता थी । “लखनऊ से जीजा आं गये { “ और बीरू नीचे भाग गया । गीता लजाकर ठगी-सी रह गयी । सरोज मुस्करा दी, “कितना मानते हे तुके ! चार दिन भी उन्हें अकेले चेन नही मिलता ! इसी को मिले हुए पति-पत्नी कहते हे ।” “और जुडे हुए ?” गीता ने दरमा कर पूछा | “हम लोग थे ! ” सरोज ने बिल्कुल सहज भाव से कहा आर वह कमरे से बाहरः जाने रूंगी । चली ययी । गीता कमरे मे निरचेष्ट खडी थी । 'बहूत तेजी से उसकी जलो मे रेंग उभर रहे थे, और उनमे अनन्त छोटी-छोटी रेखाये--जिनके केन्द्र-




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