कल्पना के आंसू | Kalpana Ke Aansu
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
7 MB
कुल पष्ठ :
246
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
जन्म:-
20 सितंबर 1911, आँवल खेड़ा , आगरा, संयुक्त प्रांत, ब्रिटिश भारत (वर्तमान उत्तर प्रदेश, भारत)
मृत्यु :-
2 जून 1990 (आयु 78 वर्ष) , हरिद्वार, भारत
अन्य नाम :-
श्री राम मत, गुरुदेव, वेदमूर्ति, आचार्य, युग ऋषि, तपोनिष्ठ, गुरुजी
आचार्य श्रीराम शर्मा जी को अखिल विश्व गायत्री परिवार (AWGP) के संस्थापक और संरक्षक के रूप में जाना जाता है |
गृहनगर :- आंवल खेड़ा , आगरा, उत्तर प्रदेश, भारत
पत्नी :- भगवती देवी शर्मा
श्रीराम शर्मा (20 सितंबर 1911– 2 जून 1990) एक समाज सुधारक, एक दार्शनिक, और "ऑल वर्ल्ड गायत्री परिवार" के संस्थापक थे, जिसका मुख्यालय शांतिकुंज, हरिद्वार, भारत में है। उन्हें गायत्री प
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)( १३)
नहीं, नहीं, ऐसा न कह, कल्पना | रात ही तो आया । आज जरूर तेरी
ओर जाता |!
कल्पना ने कुछ कहना चाहा कि तभी सिर के ऊपर खड़ा आसमान
आर अधिक काला हो गया | बादल गरजने लगे |
आतुर बनकर सुधीर बोल्ा--में घास बाँध लू | आज पानी बरसेगा |
प्रास न ले गया तो गाय को चारा भी न मिलेगा |
कल्पना बेली- सुधीर, तू पढ़ता भी है और घर का काम भी करता
है | घास खोदता है |?
घास इकटुटी करते हुए सुधीर ने बात सुन ली, वह मुसकरा दिया |
बह कहना चादता था कि दुनिया के सभी गरीबों को ऐसे ही चलना पडता
है, परन्तु उसने इतना कह्पना से नहीं कहा । आसमान से बूँदें पड़ने
लगीं शोर उसने जहदी से घास को इकट्ठा कर लिया | उस काम में कल्पना
ने भी योग दिया | जब वह चादर में घास बाँध चुका ओर उसे सिर पर
उठा कर चला, तो तभी, रास्ते में चलते हुए उसने कल्पना को सुनाया,
एक दिन स्कूल के मास्टर जी कहते थ कि धनर्पात बनना इन्सान के लिये
श्रच्छा भी है और घुस भी] वह् बौला- 'धनपति आदमी नौंकरों पर
आश्रित रहता है | स्वयं कुछ नहीं करता । वह शरीर की स्वाभाविक मांग
को मार देता है। पर निर्धन कहां से नौकर रखे | वह स्वय॑ शरीर से
भहनव करवा है | बलिष्ठ रहता है |? सुधीर ने मुसकराया-- तेरे घर तो
নান हैं न, मालदार बाप की बेटी है तू | इसी से ऐसा कहती है !'
किन्तु कल्पना के লন में उस समय दूसरी बात उठ रही थी | जैसे
ग्रासमान में छाये हुये अ्न्धकार की तरह, उसके मन पर भी श्रन्धेरे क
कोहरा छा गया था। इसलिये वह बरबस उदास बन गयी | चुट तेज
पड़ने लगीं, तो बह भी अपने पेर जल्दी-जल्दी उठाने लगी। चाहती थी
जल्दी घर पहुँच जाये | किन्तु उस दिन जैसे उन बादलों को धरसणा था ।
जल्दी ही वे बूंदें बढ़ी वध में परिशित हो गयीं। सुधीर श्रीर कल्पना को
बहीं जंगल में एक खाली पढ़े भोपड़े मे एक जाया पड़ा । देखते-देखते
User Reviews
No Reviews | Add Yours...