शारदा शिखर - २ | Sardha-sikhar - 2

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Sardha-sikhar - 2 by आचार्य श्री नेमीचन्द्र - Acharya Shri Nemichandra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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রঃ जीवन शक्कर जैसा मधुर तथा गुणरूपी पुष्पों की सुवांस से महकता हुआ था, ऐसे माता-पिता ने अपनी लाड़ली पुत्री शारदाबहन को बाल्यावस्था में पहुँचते ही शिक्षा! प्राप्त करने के उद्देश्य से पाठशाला भेजा । साथ ही धार्मिक ज्ञान अर्जित करने के लिए जैन-शाला में भी भेजते रहे । संस्कारी माता-पिता के सुसंस्कारों के सिंचन तथा पूर्व के संस्कारों की किरणों का प्रकाश पुरुषार्थ द्वारा फैलता गया 1 यह प्रकाश उनके अंतर में ऐसा आलोक चन कर बिखरा कि बाल्यावस्था में स्कूल में पढ़ते हुए, सखियों के साथ क्रीौड़ा करते हुए, মহলা বানী हुए भी उनका चित्त कहीं रमता भहीं था | उस समय भला किसे यह कल्पना तक न थी कि इस संसार से विरक्त वालिका के हदय - समुद्र मे आध्यात्मिक ज्ञानं का खजाना भरा दै 1 वे भविष्य मेँ अपने जोवन के हर सुनहरे क्षण को आत्म-साधना 'की मस्ती में, प्रवचचन-प्रभावना में, जैनशासन की बेजोड़ सेवा करने में सदुपयोग 'करने वाली हैं और अपनी उत्कृष्ट प्रज्ञा की तेजस्विता से जैन तथा जैनेतर समाज को दान, दया, शील, त्तप, अहिंसा, सत्य, नीति, सदाचार और सद्‌गुणों का पाठ पढ़ाकर, श्रेष्ठतम जीवन जीने की प्रेरणा प्रदान करने वाली है। भाल्यावस्था में ही पैराग्यमूलक विचारधारा ; शारदाबहन जैन-पाठशाला में 'सीखते हुए जब महान वीर पुरुषों की तथा चंदनबाला, राजेमती, मृगावती, दमयंती आदि महान सतियों की कथा सुनती तो उनका मन किसी अगम्य प्रदेश में खो जाता ओर विचार करने लगती कि क्या हम भी इन सतियो जैसा जीवन नहीं जी सकते ?' इसी विचार को अपनो सखियों के सम्मुख रखत्ते हुए थे कहती, “सखियों | यह संसार दुःख का दावानल है और संयम सुख का सागर है । चलो, हप दीक्षा ले लें । उनकी इस यात से हम कल्पना कर सकते है कि जिसके विचार हस नम्ही उप्र मे इतने उत्तम हो उसका भावी जीवनं कितना उज्ज्वल बनेगा ? शारदाघहन की विचारधारा वैराग्य से भरपूर तो धी ही, उनको वैराग्य ज्योति को ओर अधिक उज्ज्वल बनाने और বাই নালা एक प्रसंग सामने आया । उनकी बड़ी बहन विमलाबहन का प्रसूति के पश्चात्‌, अत्यन्त छोटी उप्र में देहान्त हो गया। ड्स घटना ने बालकुमारी शारदाबहन पर जीबन की क्षणिकता और संसार की असारता कमै छाप गहरी कर दी । उनके अंतर मै हलचल पच गड कि क्या जीचन इतना क्षणिक है ? एसे क्षणिक जोवन में नश्वर का मोह छोड़ अविनाशी की आराधना करने के लिए प्रतरज्या के पेथ पर प्रयाण करना ह श्रेयप्कर दै, हितकारौ ई 1 ड्स प्रसंग ने शारदाबहन के हृदय में संयमी जीवन का आनन्द लूटने की मस्ती पैदा की ओर यचैरग्य दृट्‌ होता गया। शारदाबहन के यरण्यपूर्णं विचार, वाणी ओर व्यवहार से माता-पिता को आभास होने लगा कि उनकी प्यारी, लाडली पुत्री संसार को सुलगता दावानल




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