निर्ग्रन्थ प्रवचन | Nirgranth-Pravachan

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Nirgranth-Pravachan  by चौथमल जी महाराज - Chauthamal Ji Maharaj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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। ( ~ ५ ४ 8 शतो लिए व्च) वे ददलत ये । उभी लौ के द्म तथा अंमृहत पदार्थों को देखने में उनका ज्ञान आँख का अति हीं प्रनोखो कार्में करता था। इस के अतिरिक्त, हे जम्बू | दौर अर के द्वार! प्रतिपादित' शत एवं चारित्र घर्म को संसार रूपी मद्दी सीगर से पार शंगातेवाली समझो। और, देखो ! धयम' माग मं ऽके कौ श्रहुषम धीरतां, वरता, सदिष्णुता, संनीषतां शरीर भलीकिक असन्न चितता को) यदी महावीर धमण; वद्धेमाना्ौर नि्मन्य; আহি चादि थमी अनेकों पावन नामों मुकर गये ह 1 न्दी दत निन्य कअय) य+ आज सभी कौमीं दया सभी अवस्थाओं के जैन अजैन गुर नारी, सर्वत्र, एक्सा और सुगमतानपूर्वत लाभ उठ सकें, (एक- मान हसी परम पविश्र उद्देश्य को ले कर, ममवई, पूना, ध्रहमद- मगर, आदि आदि कई असिद्ध शहरों के तथा गावें। के बहुल सख्यक सदशहस्थों ने, श्रीमज्जैनाचार्य, शात्र-विशारद, बाल अह्यवारी, पूज्यवर श्री मह्तालालजी महाराज के सम्परदायानु- यायी, कविव२, सरल स्वमावी, सुति श्री हीरालाल नी मदारानं के धुशिष्प प्रसिद्धवक्ता, पडित सुनि धौ चौपमलजी मद।राज से, कट धार्‌ प्रार्थना कौ, रि यदि अपञनागतेमे से चुन क्र दुं गायार्थोको एर स्थलपर_सपरदक्रके, उनका सुबोध तया सरलातिषरल मपा एक हिन्दी अनुवाद भी कर दे, तो जैन-मझगंत्‌ ही पर नदी, बरन, अमैन-जनता के साथ भी शाप की बढ़ा आरी उपकार होगा অস্থি शव अश्र का स्वोस्स्यपूर्ण सुशेध युक्त एक प्रन्ध अंक्राशेत दो शरं जगं




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