लोक जीवन | Lok Jeevan
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
6 MB
कुल पष्ठ :
204
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about दत्तात्रेय बालकृष्ण कालेलकर - Dattatrey Balkrashn Kalelkar
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)धर्म-संस्करण
५
मानव-जीवन का सवं दृष्टियों से विचार करनेवाछा अगर कोई .
है तो धर्म ही है। जीवन का स्थायी या अस्थायी एक मी अंग ऐसा
नहीं है जिसका विचार धर्म का कर्तव्य न हो ।
इसलिए धर्म मनुष्य के सनावन जीवन जितना ही अथवा उससे
भी अधिक व्यापक होना चाहिए, ओर चूंकि समस्त जीवन उसका
क्षेत्र हे इसलिए अत्यन्त उत्कट रूप में चह जीवित रहना चाहिए।
संसार में आज जो मशहूर धर्म हैं वे अधिकांश में ऐसे ही
व्यापक धर्म हैें। अपनी स्थापना के वक्त तो वे सब जीवित ही थे |
परन्तु धार्मिक पुरुषों ने बाद में भी उनके चेतल्य को वारस्वार जागृत
करके उन्हें जीवित रकक््खा है । अगीटी कौ आग स्वभावसे ही जिस
प्रकार वारस्वार मन्दी पड़ जातौ है ओर वार~दार कोयटे डाठ्कर
ओर फक मारके उसका संस्करण करना पड़ता दै, उसे जीवित या
जलते हुए रखना पड़ता है, उसी तरह समाज में धर्म-तेज को जागृत
रखने के लिए धर्मपरायण समाज-पुरुषों को उसे फूंकन ओर उसमें
इंधन डालने का काम करना पड़ता है। समय-समय अगर यह काम
न हो तो धर्म-जीवन क्षीण ओर विकृत होजाता है; ओर धर्म का
क्षीण एं विदत स्वरूप अधमं जितना ही तुक्तसान करता ह । धर्म
को चैतन्य ओर प्रज्ञ्यछिति रखने का काम धर्मपरायण व्यक्ति टी कर
User Reviews
No Reviews | Add Yours...