कृष्ण सागर | Krishna Sagar

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Krishna Sagar by मुंशीजगन्नाथ - Munshi Jagannath

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पे कुश्यासागर । द्पाऊा ॥ सपोर्कस पटवषद्टकिरा । उग्योकरन उत्पात घनेरा ॥ मथुराके बाठकजों पावे । तिनहि मारि गिरि कंदर नावे ॥ काहू बहानाकरि अस्त्राना । छाइहतेयमुना हरपषाना॥ पावे जेहिअपनेते बढ़िके । ताहिबघे छातीपर चढ़िके ॥ कीन्हेसि सकछ प्रजान दुखारी । कददनऊगे ते सकल विचारी ॥ यहनहिं वीय्य॑ नपतिधम्मी को । लिये असरकोड जन्म कहीको ॥ दो परजाके दुख दे खिके समझायो नप ताहि । तदपिनसमुझाअसुरकछुर हीकूमतिमनमां हि॥ चो ० अछवषकोमयोसुजबहदी।उड्योमगधघकेनपसेतबद्दी ॥ मगधघभप जानामनमाही । मोंते अधिकबली ये आहीं ॥ निज इं सुता बिवाही ताको । करिबिंवाह आयो सधु+ राको ॥ उगा कहननिजपितुहिं सुनाई । राम नाम तुम लेहु न माई ॥ कदनप ममकततों हें सोई । बिनाजपें केसे हितहोंई ॥तब तेह्ठ भाषा जपन उमेश । तजेंउ न रामदहिं नाम नरेशु ॥ राज्यपिता को तठबलें छीन्हों । राव प्रजन को आयसुदीन्हों ॥ करो न कोइजप तपमखदाना । ठेडु नराम नाम नइ्ध्याना ॥ दो ०. ममआआयसुजोटारिहे तुरतहिबधघिहों ताहि । कंसकेायसभयउ जब काहेनघमेपरा हि ॥ कहुंनहीतशुभकम्मतहूँ जीतेउन्पसबदोर । कटकलेइ तबसाचहा चठन इंद्रकी ओर ॥ चो० जीतन इन्द्र चढा सो जहदीं । मंत्री एक ब- झायों तबहीं ॥# दुदरहा उदसेन समयके । तजो आश




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