चिंतन की मनोभूमि | Chintan Ke Manobhumi
श्रेणी : इतिहास / History
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
10 MB
कुल पष्ठ :
472
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)जीव और जगत् : आधार एवं अस्तित्व
भारतीय दक्षंत्र और तत्व-चिन्तन ने एक वाद मानी है कि इस विरादू विश्व का
अस्तित्व दो प्रमुख तत्त्वो पर निभेर है। दो तत्त्वो का मेल ही इस विषवस्थिति का मावार
है । एक है--शाइवत्, चिन्मय और अरूप । दूसरा है--क्षणभगुर, बचेतन और उपवान |
पहले को--जीव कहा गया है, दूसरे को--जड, पुदूगछ । यह शरीर, ये इन्द्रियाँ, ये महल और
यह धन-प्रम्पत्ति सब पुदूगल का छेल है। ये कमी बनते है, कभी मिट्ते है । पुद्गल का
अय॑ ही है--“'पूरणात् गलतादू इति पृदूगल “ मिलना भौर गलना। सघात और विधात,
यदी पुद्गल का लक्षण है ।
यह बिरादू विदव परमाणुओं से मरा हुआ है । इसमें से फभी गु परमाणु-
पिण्डो का मिलन हुआ नही कि छारीर का निर्माण हो गया । एक अवस्या एव काल तक
इसका विकास होता है और फिर बिखर जाता है । इसो प्रकार धत, ऐश्वय एवं मकान है।
अनत्तकाल से ये तत्त्व शाषवत चैतन्य के साथ मिलकर धूम रहे है। ससार का चवकर लगा
रहै 1 मनन्त-भनन्त वार शरीर आदि के रूप मे एक साथ मिले, नए-तए बेल किए और
फिर गलमे लगे, बिखर गए।
आकाश्ष में बादलों का प्लेल होता है। एक समय यह अनन्त आकाक्ष साफ है,
सूर्य का प्रकाश चमक रहा है, किन्तु कुछ ही समय बाद काली-काली जल से भरी हुई घद्मएँ
धुमब्ती-मचलती चलो बाती है, आकाश मे छा जाती हैं और सूर्य का प्रकाश ढक जाता
है । फिर कुछ समय बाद हवा का एक प्रच॑ष्ड झोका आता है, बादल चूर-घूर होकर बिखर
जाते है, भाकाश स्वच्छ हो जाता है और सूर्य फिर पहले की तरह चमकने लगता है। यह
पलो का हप है। एक झण विजलो चमकती है, प्रकाग्य की लहर उठती है और दूसरे ही
क्षण चुक्ष जाती है, समृच्ता ससार अन्धकार मे डूब जाता है 1
का इस दृष्टाहृष्ट अन्त विश्व की सर्वोन्मवादी व्यास्था सत्रा पर आवारित है।
सुहा अर्थात् सामान्य, 'सामान्य' अर्थात् द्रव्य , वयः मयि अविनाशी पूतत्त्व 1 सत्ता
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