प्राचीन हिंदी काव्य | Prachin Hindi Kavya

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Prachin Hindi Kavya by डॉ. ओमप्रकाश - Dr. Omprakash

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्राचोन हिस्दो-काव्य । १५ शूंगार-काव्य के साइय से टूर हो जाता है । बयोंकि वीर-काव्य की तुलना मैं यदि जगा र-काव्य का अध्ययन किया जाय तो यह निष्कर्ष सहज ही गम्य है कि हिन्दी का श्यूगार-काब्य विदेशियों से ध्वस्त समाज को विकल विमूंढ़, वासना-परकिल, प्ाकांक्षादवीन, मकमेंण्य ्रमिव्यक्ति है, उसमे गौरव के स्थान पर तड़पन है, झाददों के हयात पर मौरध्य है, जीवनातुराग के स्थान पर वासना का प्रवाह है, सहत्वा+ कांक्षा के स्थान पर विरहानुभूति है, जीवन का ऐसा निष्टुर परिहास एवं मरणा का इतना नि्मुल्य बरण भारतीय काव्य में झन्यत्र नही मिलता । दिदेशी विष-वेध से पालोचक यदि स्टगारकालीन कदिता की छन-छंने सम+ कम भ्रपना कृतिम विरटानुभूति पर सुग्व होकर नाचने लगे तो उसे राष्ट्र का डुर्माग्य ही माना शायगा । रूदिराज सूपण एवं गुरु गोविन्दसिह की चेतनां ने उस बॉतावरण से विद्रोह किया भौर स्वय श्रादशं-काब्य के सूजन कर दूसरों के सम्घुख प्रस्तुत किया! या 1 गोविदखिह महाराणा प्रताप के समान राज- नीहिनमाज मैं ही ब्यस्त न रह सके प्रत्युत भ्पने रदल्प जीवन-काल में हो उन्होंने ९२ कवियों को भाश्वय देकर भम्पुरपारात्मक साहिस्य को प्रोत्साहित किमा एवं इ्वप चीर रस की राष्ट्रीय रचन!प्रों इ (रा को एक सबोन दिशा का निर्देश किया । शोधापेक्षी ऐसे प्रपार साहित्य की प्राप्ति पर श्गार- पल का इतिहास एक भिरन प्रकार से लिखा जाएगा । हिन्दी के श्ूंगार-कालीन काव्य ठक का भभ्ययतर करते हुए मैं उक्त निष्कर्षों पर पहुँच सका हुं । वीर-गाधा-काब्य पर जितना भधिक विचार किया जाता है उतना ही उसका सांस्कृतिक महत्व भथिक दिखलाई पढ़ता है। वीर- से हमार काष्य धीरे-धीरे पतन की भोर जाने लगता है, क्योंकि हमारा इतिहास विदेशी धवंस का इतिहास है, फिर भी भारतीय जनता पिछले एक सह वर्ष में संघर्ष करती रही है--उसने विजय की भाशा कभी नहीं स्यागी कयों- कि उसके पतीत मैं भमर प्रेरणाएँ हूँ। फलत: भक्ति-काल से हो ऐसे कवियों के दर्शन होने लगते हैं जिनका स्वाभिमान संजय रहा है सौर जिनकी बाण समय-समय पर राष्ट्र को चेठातों रही है। भपनि एक लेख 'हिन्दी-काब्य के एक सह बर्ष' में बुध वर्ष पूर्व मैंने इस विचार को प्रस्तुत क्या था 1 जो कु दिस्दी काव्य भयवा ब्रज-माषा-का्प्य के विषय में कहा गया है वह भारत के धन्य सम- कालीन भाषा-काम्यों पर भो लागू होता है, क्योकि सबको समान राजनीतिक चरित्पितियों में रहता पड़ा है। इुमात प्राचोत साहित्य सच एक भारादाद का जित्र है। के प्रति सानुराग दिलाई पड़ने पर मो इसकी भातमा इतनी संत्म है कि एक सदस दें का प्दंत भी इसको कपित नहीं कर सका । हमारा स्वतस्त्रता- संदाम “पु्दीराज रासो' से 'गोदान' तक एक परम्परा में प्रतिविस्ित हुआ है राजनीतिक इतिहास के पुनूं पर प्राचोद हिन्दी -साहित्य का पुनमू स्याकन भनियाएं बन जायया 1




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