आत्म - विकास | Aatm Vikas

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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आत्म-विकास १७ परिस्थितिया मनुष्य को दवा लेती है । उसको चारो श्रोर भय के भूत ही दिखलाई पडते है । काम के साय भय सिदिचत रूप से समाप्त हौ जाता है । जब मनुष्य एक दिशा मे चल पडता है तो भय उसके पैरो के नीचे श्रा जाता है) युद्धस्यलो मे यद्‌ देखा गया है कि युद्धारम्म के पूर्वं बहुत-से सिपाही भावी सहार की कल्पना से भयभीत रहते है, परन्तु युद्ध के प्रारम्भ होने पर भीत सैतिक भी गोलियो की बौछार मे निर्मय होकर दौडता है । इसका कारण केवल यह है कि कर्मो्रत होने पर भय समाप्त हो जाता है, तब मनुष्य भ्रपनी झत्यु से भी नही डरता | शारीरिक श्रम से मन का मय निश्चय ही भागता है। श्रालस्य मे कल्पनाजन्यं भय से श्रपनी निस्सहायावस्था का जो अनुभव होता है वह महाश्रात्मनाशी होता है 1 शारीरिक एव मानसिक रियिलता के कारण ही प्राय जीवन मे प्रस फलता होती है । दौनता--चाहे परिवार की दीनता हो था स्वभाव की अथवा साहस- उत्साह की या घन की, वह्‌ मय उपजात्ती है । झ्राथिक दीनता से श्रस मर्थता ज्ञात होती है । पारिवारिक दीनता से मनुष्य भ्रपतेको हीन मानकर दूसरो से डरताहै | स्वभावकी दीनतासे स्वामी होने पर मी मनुष्य अपने सेवको तक से डरता है । दीन व्यक्ति सदेव हीनचित्त एवं आकुल-व्याकुन रहता है। परवशता--परवशत्ता मे, सर्वेत्र भय ही भय का सामना करना पडता है। परवशता हम उस परिस्थिति को कहते है, जिसमें मनुष्य अपने स्वतन्त्र व्यक्तित्व को खो देता है। उस दशा भें वह स्वावलम्बी न होकर पूर्णरूपेण परावलम्बी बन जाता है। पूर्ण ्रात्म-विदवास के साथ स्वतन्त्र व्यक्तित्व चना लेने पर मनुष्य आत्म निर्मर हो जाता है । अपने को किसी के आश्चित कर देने पर अथवा भीड का एक अग बना देन परभ्रात्म-शक्ति क्षीरा हो जाती है । भीड मे अन्धविश्वास और उसके कारण भय के भाव उठते ই भीड में मिले रहने पर यदि किसो ओर भय का सचार हुम्ना तो भगदड़ भच जाती है, लोगो मे परिस्थिति को समझने या उसका सामना करने की




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