1888 साधना के पथ पर | 1888 Sadhana Ke Path Par
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
10 MB
कुल पष्ठ :
338
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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आत्मविकास का मार्ग
अद्वुविहकस्मवियला. णिट्टियकण्जा. पणदुसंसारा ।
विदुसयलत्यसारा सिद्धा सिद्ध मम दिमतु1
“आज विकास का विपय है। विकास का अर्थ विस्तार है । एक वस्तु यदि
एक रूपमे ही वनी रहे तो उसे नष्ठ होते देर नही लगेगी | यदि वही वस्तु
अनेक रूप मे आ जाय तो फिर उसके नष्ट होने की कोई बात नहीं है।
विकास भौतिक पदार्थों का भी है और आत्मा का भी है। आज जितना भी
वाहिरी पदार्थों का विकास आप देख रहे हैं, वह सत्र भोतिक विकास হী ই!
नाना प्रकार के कल-कारखाने, विजली के कार्ये, मशीन जौर यत्रो के कार्य,
नाना प्रकार के परमाणु बस््ो का निर्माण गौर एटमवम आदि सव भौतिक
विकास हैं जिनसे आप सबकी नाना प्रकार की इच्छाओ की पूर्ति हो रही है।
आप जितने उद्योग कर रहे हैं, देवी-देवताओं को मनाते है, जालसाजी, कपट
मौर घूर्तता करते हैं, तो इस सबका भूल ध्येय क्या है ? यही कि दुनिया मे
हमारा विकास हो, हम आगे बढें और दुनिया हमारी ओर देखें | वेभव की
वृद्धि को कम कोई नही करना चाहता है, सभी उसकी वृद्धि करने मे ही लग
रहे हैं । परन्तु यह भोतिक विकास भी कव होता है ? जबकि पूर्व भव-कृत्त
शुभ कर्मों के उदय का सयोग मिले, स्वय मनुष्य उद्योग करे और निमित्त,
उपादान कारण सब ही शुद्ध प्राप्त हो जायें तो झट विकास हो जाय । मनुष्य
लाखो का लाभ चाहता है, परन्तु होता दहै सैको काही! क्योकि निमित्त
उपादान, कारण समुचितं रूप से मिते ही नही 1 विना निमित्त, उपादान,
कारण के वह आगे कंसे অন্ত सक्ता है!
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