अध्यात्म प्रवचन | Adhyatma Pravachan
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
11.82 MB
कुल पष्ठ :
480
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)भ्रप्यारस-जीपन (5
रष्टिगोचर होती है। यह मानव की आध्यात्मिक निर्वनता की स्थिति
है। आात्मोद्धार के स्रोत से विपुक्त, सत्य के ज्ञान से अनभिज्ञ, जाज
का मानव घीरे-घीरे विकास से थिनाय की ओर अग्रसर हो रहा दै
उत्यान से पतन की ओर बढ रहा है ।_ मेरे विचार में आज के वैज्ञा-
_ निक युग की वहू समृद्धि व्य है, जो. मनुष्य वी आाप्यान्मिक क्षूथा
को तृप्त नहीं कर सकती । हे आधिप्कार त्पाज्य हैं, जो मनुष्य को
मनुप्य नहीं चना रहने देते । मागवादी दृष्टिकोण ने मनुष्य-जीवन में
निराणा, भवप्ति और वठा की जन्म दे उाला है। दूसरे दाव्दो में निराणा,
अनृप्ति भौर् कु दा ने आज की जन-बनना को जाद लिया है । घक्ति,
अधिकार तथा स्व॒त्व का लालसा दिनो-दिन प्रचण्ट एड वीमत्स रूप
घारण करनी जा रही है। इस दृष्टि से मे यह सोचता हैं कि मनुष्य
को पतन के इस गहन ग् से निकालने के लिए, नाज प्रगलिणील एवं
सुजनात्मक अध्यात्मवाद की नितान्त आवण्यकतता है । आज का मानव
परस्पर के प्रतिणोघ और विद प के दावानल में भुलस रहा है । जाज
के मानव को वही घर्म एव दर्णन सु और सन्तेप दे सकता है, जो
मात्म-वोघ, आत्म-सत्य एव आत्म-ज्ञान की उपज है । चही अध्यात्म-
वाद गाज की इस घरती पर पनप सकता है, जो विश्व की समग्र
आत्माओं को समान भाव से देखने की क्षमता रखता है । अब्यात्मवाद '
कहीं वाहर से आने वाला नही है, वह तो हमारी आत्मा झा धर्म है,
हमारी चेतना का घर्म है एवं ' हमारी संम्फतति का प्राणसूत तत्व है ।
आज के मनुप्य को यह समभक लेना चाहिए कि ससे जो कुछ भी पाना
है, चह कही चाहर नहीं हैं, वह स्वय उसके अन्दर मे स्थित है ।
,..>मावद्यकता है केवल अपनी अव्यात्म-णक्ति पर विष्वास करने की,
विचार करने की और उसे जीवन की धरती पर उतारने की 1
जहाँ तक मैंने अव्ययन गौर मनन किया हूँ, मैं यह कह सकता हू,
कि प्रत्येक पथ भौर सम्प्रदाय का अपना कोई विश्वास होता है,
अपना कोई विचार होता है और अपना कोई आचार होता है।
आचार वनता है--विचार से और विचार वनता है--विद्वास से ।
चविष्वास, विचार (ज्ञान) और आचार कहो वाहर से नहीं भांति । वे
आत्मा के अपने मात्मसूत निज गुण हैं । आत्मा के इन निज गुणों का
छोघन, प्रकागन और विकास ही वर [त हमारी मब्यार्म-साथना है 1
अव्यात्म-साघना का इतना ही अर्थ है, फि वह मजुष्य को प्रसुष्त शक्ति
को प्रवुद्ध कर देती है। विद्व मे जब साधक अनेक हैं, तो साघना की
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