नागार्जुन भाग 1 | Nagarjun Vol.- I

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Nagarjun   Vol.- I by नागार्जुन - Nagaarjun

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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माश उसी से ले-देकर फिर किरिया-करम हुआ आर फिर उन्हीं ने वलचनमा को अेस चराने का काम देकर धन्य किया । सहजता की भाड़ में नागार्जुन कंसी चोट कर रहे हूं इसे जानने के लिए अर्थ की मार को पकड़ना होगा । जीवन के किन पक्षों को कितना गहरा रंग देना है इसे जानने के लिए बलचनमा में घान की रोपाई का वर्णन देखिए कुम्भीपाक में महाजाल से मछली पकड़ने का सामूहिक कर्म देखिए भोला द्वारा मगरमच्छ का मारना देखिए काका द्वारा भेंसों की देख- भाल का विज्ञान सुनिए । ऐसे कितने ही प्रसंग हैं इन उपन्यासों में जिनका वर्णन इतनी खूबसुरती से नागार्जुन करते हैं कि वह जीवन अपनी सम्पूर्ण जीवन्तता में माँखों के सामने भा जाता है । इन्हीं के माध्यम से सामने आता है इस जीवन का वास्तविक सौन्दयें उसमें संघषं रत लोगों की शौर्य गाथाएँ । इस जीवन से यह गहरा परिचय इन वर्णनों में ही नहीं परस्पर संम्वन्धों के उन मार्मिक पक्षों में भी सामने आता है जो उपन्यासों में कदम-कदम पर मिलते हैं । इन प्रसंगों पर नागार्जुन की नजर ठहर-ठहर जाती. है।.. 7 रचन्ना में रचनाकार की राजनीति और विचारधारा की चर्चा इधर काफी जोरों पर. है. । उसके कुछ विधि-विधान भी सुझाए जा रहे हैं कि. वह इतनी होनी चाहिए इस तरह होनी चाहिए । नागार्जुन ऐसे किसी विधि-निषेघ में विश्वास नहीं करते । उनकी अपनी राजनीतिक समझ है तो उनके पात्नों की भी एक राजनीतिक समझ उपन्यास में विकसित होती है । उनकी संघर्ष और भविष्य में भास्था है तो बैसे मास्थावान चरिल्लों का विकास वे अपने उपन्यासों में भी करते हैं । जीवन और समाज को लेकर उनका अपना एक सपना है तो ऐसे पात्र भी हैं जो उस सपने को साकार करते हैं। यह सब कुछ उसी जिन्दगी का हिस्सा है जो नागार्जुन के उपन्यासों के केन्द्र में है । इसे डंके की चोट उपन्यास में कर दिखाने में उन्हें कुछ नागवार नहीं लगता । भव इसके लिए क्या वे भद्रजनों और सुरुचिसम्पन्न महा- शयों के पास जाएँ यह पूछने कि अजी अगर धोड़ा-सा यह वघार लगा दूँ तो बहुत चुरा तो न लगेगा आपको जी । ऐसी सौन्दर्याभिरुचियों की उन्होंने कभी कोई परवाह नहीं की । बल्कि इसके उलट वे तो इस पर निमंम भाघात करना चाहते हैं। मपनी एक कविता में उन्होंने कहा भी है प्रतिहिसा ही स्थायीभाव है अपने कवि का । इसलिए इन सबको लेकर उनके मन में कोई दुविधा कभी नहीं रही | नागार्जुन की रचना के अधै्य को लेकर भाषा में आंचलिक शब्दों की बहुता- शयत्त को लेकर कथा में छटे लम्बे मंप्स को लेकर काफी चर्चा सुधी जनों के वीच जुई है । इनके वारे में आदद्षं नियमों की सृष्टि करना विद्वानों का कार्य है । इनसे रघना सम्भव नहीं । और हाँ आज तक किसी बड़े रचनाकार ने ऐसी भादरशे परि- निष्ठिति भाषा नहीं लिखी जिसे आदर्श माना जा सके । ऐसी भाषा जीवन्त नहीं जड़ होगी जिसका निर्माण जीवन से नहीं प्रयोगशाला में ही सम्भव है । नागार्जुन जे अपनी भाषा पाठ्य-पुस्तकों से नहीं जनता के विद्वविद्यालयों से सीखी है । -फर्णसिह चौहान




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