यूरोप के झकोरे में | Europe Ke Jhajore Me

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Europe Ke Jhajore Me by डॉ सत्यनारायण - Dr. Satyanarayan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भूष्तते-भरवतते ५ उभर जिशी मपनी गाड़ी के दरवाजे पर बैठा बहला घञा रा भथा। हवा गाय-साँय करती हुई इक्षों को ककमोर रही थी । ओर, मूसलथार पानी बराता ही जा रहा था । वर्षा का पानी मेंरे पांव के पास एक छोटे से गढ़हे में इकढ़ा हो गया था। बारिश रुक जाने पर वह स्थिर हो गया। उसी में मुझे खपना प्रतिन्रिम्ब दिखाई दिया। बंद मभोला, पर ठीक बांस के पढ़े के भराक्ार का। कफो ठोकने पर जसा उने उपरला भाग नपा हो जाया करता $ परैर चारों थार भे रेशे दाउकने दागते हैं ठीक उसी भांति मेरे सर के बिखर हुए बान चिं मोर्‌ लटक रहे थे। र्म छपर से नीचे तफ काला । चेहरे भोर कपड़ों से छुल धुल कर कोयला पानी में जा मित्ता था। शायद इसी कारण उस स्थाने प्र जमे पानी का र। भ्रधिक काला दिखाई देता था। मेरे सारे शरीर से कोय की भू निवल री थी । भाने को शली भति पहात पाने के लिये जिप्सियों की गाड़ी की कांच पाली खिड़की के सामने जा खड़ा हुआ । मेरे जैसी वेश-भूषा वाले 'सब्बन' का परदाएंण यूरोप के बन्दरगाह में बढ़े भाग्य से किसी शुभ উজ में ही कभी होता होगा । कमर में बड़ी लापरवाही से छपेदी हुई लुगी के दो ट छसे थे । सामने की दोनो भुरिथं इस तर ऊँची बने गयी थीं कि हिलते समय जान पढ़ता था मानें भुर्गी की दो बच्चियां दोन भोर वीरासन छण भटी ह क्षौर एकर पर हमला करने के लिये पैतेरे प्दल री! लगी की शुरो को ठकने का परय उपर की गंज़ी से क्रिया गया था जिसके भीतर स छाती के बाल बाहर गांक रहे थे। उसके ऊपर से भेंने एक काला कोट चढ़ा रखा था, जिसमें एक




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