शासन - निरपेक्ष समाज | Shasan Nirpeksh Samaj

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Book Image : शासन - निरपेक्ष समाज  - Shasan Nirpeksh Samaj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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इंड-इक्ष्ति १९ श्रमिकों को अपना श्रम कारखानेदारों के हाथ बें बेचने पर मजबूर होना पड़ा । श्रमिकों की मजदूरी से पूंजीपति उसका नाजायज फायदा भी उठाने छगे। इस तरह पूजीवादी छोकतत्र में जनता की हालत राजतंत्र से भी अधिक खराव हो गर्द; क्योकि राजतत्र में जहा जनता को आत्मा ही कुंठित होती थी, वहां लोकतंत्र मे जनता के शरीर और आत्मा दोनों का क्ोपण होने लगा, सो भी पहले से अधिक पैमाने पर ! इससे भी ऊब कर मनुष्य ने बाद में जी क्रि की, उससे उसकी आत्मा और अधिक कुंठित हो गई। पहले जिस तरह राजाओं को हटा कर राजदंड को पार्लामेंट के हाथ में डाल दिया उसी तरह अब केवल राजदड ही नही, बल्कि उत्पादन-यंत्र भी उसी के हाथ में सौंप दिया जिसके हाथ में राजदंड था। जब दमन तया उत्पादन के साधन एक ही गुठ के हाथ में जा गये, तव उसके छिए जनता का पूर्णरूप से निर्देहन करना आसान हो गया। दंड का दवाव जनता पर और अधिक हो गया | कहावत हैं, 'ज्यो-ज्यो इलाज किया मर्ज बढता ही गया ।' मनुष्य जैमे- जैसे आजादी की चेप्टा करता ग्रया, वैसे-वैसे उसके गले में शासन का फंदा बढता गया । कारण यह हूँ कि, यथपि मनुष्य ने इस चेप्टा में बड़ी-बड़ी प्रांतियां कीं, भीषण आत्म-वलिदान भी किया, लेकिन उसने एक वुनियादों भूल की। उसने यह नहीं समझा कि उसके सिर पर दंड गिरता हूँ, दंड चलाने- याला नदी । द भूल वेः कारण उसने यह समझा कि उसको तकलीफ दंड घलानेवाल़ों के कारण हो रही है, न कि दंड के कारण । इसीलिए उसने हमेशा चलानेगालों पर हो हमला क्या और दंड को केवठ स्रक्षित ही नही रखा, वल्कि उसका कलेवर बढाता हो गया। गांधीजो ने मानव-समाज की दृष्टि इस बुनियादी भूल को ओर आकृष्ट की । उन्होने वताया कि मनुष्य सुद दोपौ नही टता, पदति हौ विसी सुख या दुस का कारण हीतो हूँ अयर दड के आपात मे तकलीफ होती है तो दंड को न हृटाफर दंड चलाने बालो को बदलते से कोर लाभ नदी होता! अतएव अगर मनुष्य को द्योपर-




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