अध्यात्मसहस्त्री प्रवचन भाग ४ ५ ६ | Adhyatmasahastry Pravachan (bhag - 4,5,6)

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खेमचन्द जैन - Khemchand Jain

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सर्राफ़ मंत्री - Sarraf Mantri

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सहजानंद शास्त्रमाला - Sahajanand Shastramala

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ग्रध्याटमसहस्री प्रवचन चतुथं भाग & णमन आत्मासे हुआ है, आत्माके द्वारा हुआ है, श्रात्मासे हुआ है, आात्माके लिए हुआ है । जहाँ अभिन्‍त षट्कारताकी विधि निहित है इस पद्धतिसे जहाँ शुद्ध पर्यायको आत्मामे तकर।, यह्‌ शुद्धनिङ्वयनयसे भ्रात्माका ददन है । इस नग्रका विषयभूत प्रभ्स्वरूप है, भगवान वीतराग हे श्रौर उनका स्वभाव शुद्ध विकसित है । भगवा) परमात्माका श्रथ ही यह है कि उर्पायिका स्राव व प्रभाव न रहे और अपना जो निज सत्त्वका स्वभाव है वह विशुद्ध पूर्ण विकसित हो, उसीके मायने है भगवान । तो भगवान आत्मा वीतराग है और पूर्ण प्रतिभासस्वरूप है । तो प्रभ्रुभक्तिकी उत्क्ृष्टता शुद्धनिश्वयन्यके विषयमे बनती है। शुद्धनिश्चय5य शुद्धपर्याय से परिणत आत्माको निरखता है और इस विधिसे निरखता है कि अपने चतुष्टयकी परिणति से ही यह आत्मा शुद्धपर्यायरूप बचा है। एकसे एकमे निरखनेकी बात निश्चयनयका स्वरूप कहलाता है । उब प्रभुके देतकी ष्टि छोडकर, प्रक भ्रतिश्योकी दृष्टि छोडकर अत अ्रति- शयको निरखते है केवलज्ञातमय, जिस ज्ञातमे त्रिलोक त्रिकालवर्ती समस्त सत्‌ ज्ञेय है, केवल दर्शतभय-जिस दशेनसे अन्त ज्ञान परिणत आत्मा दृष्टिगत है, ऐसी अनन्त शक्तियाँ ज है और विशुद्ध शाश्वत विरुपाधि अ्रव्न्त आनन्द ज प्रकट है और यह सब विकास उस आत्मामे आत्मासे ही *ल रहा है, अपने आधार पर चल रहा है, किसी परवस्तुकी श्रपेक्षा से नये है एसा एक श्रात्मामे यो शुद्धपर्यायको निरखने पर शुद्धनिश्चयन्यसे आत्मदर्शन होता है । अशुद्धनिश्वयनयमें आत्मदशनका प्रकार--श्रशुद्धनिश्वयनयसे श्रात्मा रागादिमान है । इस ससार श्रवस्थामे यह जीव रागावियुक्त है, सो इस रागादिके प्रसगमे जब केवल निश्चयनयकीो पद्धतिसे देखा जा रहा हो कि यह आत्मा रागी है, इसमे रागपरिणमन हुआ है, अपने ही चतुष्टयकी परिणतिसे रागपरिणमन हुआ है, इस रागका प्रयोजन, इस रागका आधार, इस रागका साधन, इस रागका आविर्भाव यह आत्मा स्वय हो रहा है, ऐसा केवल एक आत्मासे ही रागपर्यायको निरखना और निशचयदयकी विधिसे निरखना, यह है अशुद्ध निरचयनयसे आत्माकी परख । आत्मा रागादिमात है, इस ইজি অন্ধ बात नहीं आ रहो है कि कर्मोके उदयसे आ्ात्मा रागादिमान बन रहा है। यहाँ निश्चयनयकी दृष्टि होनेसे दो -पदार्थो पर दृष्टि नही है । इतना तक भी दृष्टिगत नहों है कि कर्मोदय तो मात्र নিলি है और आत्मामे थे रागादिक प्रभाव स्वय हुए है क्योकि इस कथनमे द्वैत पदाथ तो आ ही गए । आत्मामे यह प्रभाव स्वय हुआ है और अपनी परिणतिसे यह आत्मा रागादिमान है, मात्र इतना निरखता अलुद्धनिश्वयनयकी दृष्टिमे हो जाता है। तो अशुद्ध निर्चयनयकी




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