प्राकृत और अपभ्रंश का डिंगल साहित्य पर प्रभाव | Prakrit Aur Apbransh Ka Dingal Sahitya Par Prabhav

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Book Image : प्राकृत और अपभ्रंश का डिंगल साहित्य पर प्रभाव  - Prakrit Aur Apbransh Ka Dingal Sahitya Par Prabhav

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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रु प्राकृत । भाषा और साहित्य किसे प्राकृत के नाम से सवोधित किया जाय ? कौन सी भाषा प्राकृत कहलाने की अधिकारिणी है * ये ऐसे प्रश्न हैं, जिनका उत्तर दो तीन ढंग से दिया जा सकता है । पाश्चात्य विद्वानों मे प्राकृत दाव्द का प्रयोग इन भर्थों मे किया हैश--- (१) वे विक्षेप भाषाएं जिनका भारतवर्ष में प्राकृत शब्द से उल्लेख किया जाता है । जैसे महाराष्ट्री, या संस्छत नाटकों के प्राकृत अश । (२) मध्यम भारती युग की भाषाएं । (३) साहित्यिक और दिष्ट भाषा से भिन्न सहजन्य लोक भाषा के लिए । इस अन्तिम अर्थ मे कई लेखक प्राकृत के तीन भेद करते है* प्रथम, द्वितीय और तृतीय प्राकृततें जो तीनों वड़े युगो की सहजन्य लोक भाषाएं थी । इन तीनो प्रयोगों से एक वात स्पष्ट हो जाती है कि चाहे जो हो प्राकृत भाषाए-चाहे उन्हें लोक भाषा के स्प में ग्रहीत किया जाय अथवा साहित्यिक के + भारत के भापा-इतिहास की एक अत्यन्त भावक्यक भरुमिका है । एक ओर से वतंमान काल की वोलचाल की नव्य-भारतीय-गार्यभापाए भौर दूसरी ओर से प्राचीनतम मारतीय-आार्य भाषा जैसे कि वेद की भाषा, यह दोनो स्वरूपों के वीच की जो भारतीय भापा इतिहास की अवस्था है, उसको हम प्राकृत नाम दे सकते हैं ।' इसी बात को प्रकारान्तर से इस प्रकार भी कहा जा सकता है-भारतीय भार्यंभाषाओों को प्राचीन मध्य गौर माधुनिक, तीन कालों मे विभाजित किया गया है । प्राकृत, मध्यकालीन भाषाओं का प्रतिनिधित्व करती है । इसी व्यापक मर्थ में लेने पर ६०० ई० पुर्वे से १००० ई० तक के सोलह सौ वर्षो तक भारतीय-भार्यंभाषा विभिन्न प्राकृतो तथा. तत्पश्चात्‌ अपश्रन्द के रूप में विकसित होती हुई, आधुनिक भारतीय मार्यंभाषाओ की जननी बनी ।” आार्यभापा १. बनारसीदास जैन . प्राकृत प्रवेदिका-पु० ४ प्रियसंन, वूत्नर, पिदेल, डा० प्रवोध पड़ित, डा० तिवारी आदि सभी तीन विभाजन करते है । विस्तृत विवेचन अन्यत्र है। डा० प्रदोध बेचरदास पड़ित : भाषा-पू० १ डा० सरयूप्रसाद अग्रवाल . हिन्दी साहित्य कोश-पू० ४९२ *. डा० उदयनारायण तिवारी : हिन्दी भापा का उद्गम और विकास-पु० ६० न नध्श




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