संशय के साए कृष्ण बलदेव वैद संचयन | Sanshay ke Saye Krishna Baldev Vaid Sanchayan

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अशोक वाजपेयी - Ashok Vajpeyi

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उदयन वाजपेयी - Udyan Vajpeyi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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लगता है। फिर शीघ्र ही भूल जाता है कि वह पैसे ढूँढ़ रहा है। नाली में और भी कई रोचक चीज़ें हैं। वह उन्हीं में खो जाता है। अपने आपसे बातें करने लगता है। उसके गालों पर फिर फूल खिल जाते हैं मानो उसके सपने फिर उसे मिल गये हों। दो माँ चूल्हे के पास बैठी उचक-उचककर फूँकें मार रही है। धुआँ सारे घर में किसी प्रेतात्मा की भाँति मँडरा रहा है। घर का मुँह बन्द है। माँ एक लम्बी फूँक मारती है। राख उड़ती है और वह आँखें मसलने लगती है। -वयह गीली पानी लकड़ियाँ माँ बुड़बुड़ाती है। दादी को विश्वास है कि माँ हर रोज़ प्रात काल उठकर लकड़ियों पर पानी उँडेल देती है। माँ लकड़ियों को उलट-पलटकर फिर फूँक मारने लगती है। धुआँ फिर उठता है। कड़वा कसैला ज़हर-सा धुआँ। हर साँस के साथ हलक़ में भर जाता है। फिर छाती से विषैली खाँसी उठती है और आँखों में कड़वा पानी उमड़ आता है। यह धुआँ है या काला साँप जान के पीछे पड़ा है -गीली पानी लकड़ियाँ सब खाँस रहे हैं । माँ दादी वह ख़ुद । दादी की खाँसी सबसे अधिक सूखी सबसे अधिक कड़वी सबसे अधिक भयानक है। वह कभी लेट जाती है कभी एक झटके से उठ बैठती है कभी औंधे मुँह गिर जाती है और कभी एकदम लटक-सी जाती है। उसकी हालत खराब है। -गीली पानी लकड़ियाँ माँ की आँखों से पानी बह रहा है । शायद इस पानी में नमक भी हो लेकिन उसे माँ के साथ सहानुभूति का अनुभव नहीं होता। उसकी इच्छा होती है कि आगे बढ़कर उसको पीठ पर एक ऐसी लात जमा दे कि उसका सिर चूल्हे में घुस जाए उसके होश ठिकाने आ जाएँ आग जल उठे धुआँ मर जाए और दादी की खाँसी रुक जाए।




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