थैलाभर शंकर | Thaila Bhar Shankar
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
3 MB
कुल पष्ठ :
174
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)मे लीन हो गधे थे । उन्होंने आँखें बन्द कर ली थी, बीच-वीच
मे सिफे हुबके की दबी दवी आवाज आ रही थी, गुड क-गुडक ।
अब दादोमाँ का गुस्सा बढ चला । वे वोली, “ठीक है, तुम्हे
जव कुछ भी नही करना है, तो मैं लालवाजार हो कहला भेजती
व
इसी नांटकीय क्षण में एक सज्जन घर के अन्दर घुस आये ।
बाहर का दरवाज़ा बन्द नही था ! ये सज्जन कहने जा रहे
थे, “घर का दरवाजा कभो भी खुला न छोडा करे । कया पता--
कब कौन सी मुसीबत भा पडे ! बदमाशों की तो भरमार हो
रही है देख में ।”
ठीक इसी समय दादीमाँ के मुह से 'लालबाजार' की बात
सुनकर वे घबरा उठे ।
*ऐं ! सुवह-सवेरे लालवाजार की बात क्यों ? जो डर था,
वहीं है भाभीजी ”
साफ समक मे आ रहा था कि ये सज्जन इस घर के शुभ-
चिन्तक है, और सबको बहुत चाहते है।
पिकलू ने देखा, सज्जन ने जामुनी रंग की खादी का आधी
चाह का कुर्ता पहन रखा है । बुढाया हुआ दुबला चेहरा । लगता
है दादी की उमर के ही होगे । सिर बिल्कुल गजा-“बस एक-
डेढ इच लम्बी घने काले बालों की पट्टी जरूर थी । लगता था,
दर खोपडी के नीचे की तरफ मोटा-सा काला रिवन लपेट रखा
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दादा ने हंसकर उस सज्जन को तसल्ली दी, “चौरी-डकैती
थी बात नही है । ये एक बार समधीजी से वात करना चाहती
पे हु
, , यह सुनकर सज्जन और भी चिस्तित हो उठे, “गजब हो
गया ! किया वया था उठहोने * सालवाज़ार की पुलिस-हवालात
बदमाशों के जाल में / १४.
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