थैलाभर शंकर | Thaila Bhar Shankar

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Thaila Bhar Shankar by शंकर - Shankar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मे लीन हो गधे थे । उन्होंने आँखें बन्द कर ली थी, बीच-वीच मे सिफे हुबके की दबी दवी आवाज आ रही थी, गुड क-गुडक । अब दादोमाँ का गुस्सा बढ चला । वे वोली, “ठीक है, तुम्हे जव कुछ भी नही करना है, तो मैं लालवाजार हो कहला भेजती व इसी नांटकीय क्षण में एक सज्जन घर के अन्दर घुस आये । बाहर का दरवाज़ा बन्द नही था ! ये सज्जन कहने जा रहे थे, “घर का दरवाजा कभो भी खुला न छोडा करे । कया पता-- कब कौन सी मुसीबत भा पडे ! बदमाशों की तो भरमार हो रही है देख में ।” ठीक इसी समय दादीमाँ के मुह से 'लालबाजार' की बात सुनकर वे घबरा उठे । *ऐं ! सुवह-सवेरे लालवाजार की बात क्यों ? जो डर था, वहीं है भाभीजी ” साफ समक मे आ रहा था कि ये सज्जन इस घर के शुभ- चिन्तक है, और सबको बहुत चाहते है। पिकलू ने देखा, सज्जन ने जामुनी रंग की खादी का आधी चाह का कुर्ता पहन रखा है । बुढाया हुआ दुबला चेहरा । लगता है दादी की उमर के ही होगे । सिर बिल्कुल गजा-“बस एक- डेढ इच लम्बी घने काले बालों की पट्टी जरूर थी । लगता था, दर खोपडी के नीचे की तरफ मोटा-सा काला रिवन लपेट रखा 1 दादा ने हंसकर उस सज्जन को तसल्‍ली दी, “चौरी-डकैती थी बात नही है । ये एक बार समधीजी से वात करना चाहती पे हु , , यह सुनकर सज्जन और भी चिस्तित हो उठे, “गजब हो गया ! किया वया था उठहोने * सालवाज़ार की पुलिस-हवालात बदमाशों के जाल में / १४.




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