अंगारों में फूल | Angaron Me Phool

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Angaron Me Phool by संतोष शैलजा - Santosh Shailaja

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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में डूब मरना चाहिए । “वासुदेव ! वासुदेव !” आवाज सुनकर ज्यों ही वासुदेव ने द्वार सोला, तो चौवाकर पीछे हट गया ! आप कौन *” प्रत्पुत्तर में आगन्तुक ठहाका लगा उठे । हसी सुपरिचित थी । अव वासुदेव ने अपने भाइयों को पहचाना । दामोदर व वालकृप्ण वेदाभूपा ओर आवाज बदल तेने में बहुत कुशल थे । वासुदेव को विस्मित देख दामोदर वोला, “क्यो, पहचाना नहीं तुमने भी * वाह ! आज तुम भी मात या गए ।” दामोदर ने एक भीर ठह्दाका लगाया । वह आंगन पार कर भीतर की ओर चला, तो चालकृप्ण व वासुदेव पीछे थे । वांसुरेव की उत्सुकता अब मूक न रह सकी, “भैया ! आज भौर विसकों मात दी है ? कहा से भा रहे हो ?” समय दामोदर फिर हम पढ़ा, “आज सडे-्सविस की डइचेनसबिस करके आ रहा हू ।” “यह कंसे *” वासुदेव का किशोर मन अभी भी समक्त ने पाया था । उसके चेहरे पर प्रश्न चिल्ल बना देख वालकृप्ण ने स्पप्ट किया, “सरे, चौ थोरट-वेलिकर नामक नये-नये ईसाई वने हैं न***आज उन्ही- की मरम्मत की है***”” “मरम्मत नही, शुद्धि कहो धुद्धि ! अब “इंडियन को गाली देने मे पहले उन्हे दस वार अपने दुपते अग सहलाने पड़ेंगे !” “वाह | मैया ! आज तो मजा था गया ।” हप॑ से उछलकर यासुदेव भैया से लिपटने लगा, परन्तु दामोदर तुरन्त दूर छिटक गया-- “अरे ठहर मुझे छुना नहीं ! पहले उस मलेच्छ की छत तो उतार च्छि! और वह भागकर स्नानागार में घुस गया । वायुदेय अभी अठारद वर्पीय विद्योर ही था । परन्तु कब का सक्रिय सदस्य होने से उसके विचार काफी परिपक्व हो चुके थे । दो ईसाधयों के मैया के हावों पिटने की कत्पना ने उसके किदोर सम को बा




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