विजय पार्ट - १ | Vijay Part-1
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
9 MB
कुल पष्ठ :
332
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)विज्य १
बाबू राघारमण ने हँसते हुए कहा--^कौनं कहता दै कितुम
सूख हो ? जो तुम्हें मूर्ख कहें, वह स्वयं एक बड़ा भारी मूर्ख है ।
सन्नी के श्रसमय झ्रा जाने से सुके बड़ी चिंता है। कुछ-न-कुछ
ज़रूर श्रनिप्ट हुआ है । चह अपने लेक्चर, मित करनेवाली नहीं
है, चाहे जो कुछ हो, वह कॉलेज छोद़नेवाली नहीं, श्रसमय कलिज
से शमना कषर से खाली सहीं है |;
राजेश्वरी ने खीमकर कहा--“ज्ञरा-सी बत कह दी, बस, उसी
के पीठे पड़्गषए् । म क्याजान, स्यो मन्नी चली श्राई | मैंने
तो पूछा था, उसने कुछ जवाब नहीं दिया । अव्र तुम्हीं जाकर पटो,
तो तुम्हें शायद बता दें ।” यह कहकर राजेश्वरी फिर हसने लगी ।
बाबू राघारमण राजेश्वरी की हंसी देखकर अप्रतिभ हो गए ।
उन्होने कहा “सच हे, सी-चरित्र समना टेढ़ी खीर है । श्रभी-
अभी नाराज़ हो गई, चार बातें सुना दीं, श्र अब हँस रही हैं !
अच्छा, में हो जाता हूँ मन्नी से पूछने । मन्नी मुभसे कोई बात नहीं
प्विपाती । तुभसे चिपाती होगी, क्योकि तुम उसकी...
राजेश्वरी ने उष्फुल्न कंड से कहा-- “भक्ते ही मै उसकी सौतेली
मा होऊं ; लेकिन मन्नी तो अपनी मा से झधिक ही सुभे प्यार करती हैं ।
यदि बहन जीती भी रहतीं, तो वह उन्हें सुभसे अधिक न चाहतीं ।
सन्नी-ऐसी लड़की पैदा करकं वह धन्य हो गईं । क्या करूँ, में ही.
अभागिनी ह, जो मेरे एक लड़की सी न हुई । यह भी अच्छा
हुआ । शायद अगर कहीं मेरे एक-झाघ लड्का-वङ्का होता,
सो वह मजी-सैप्ता न होता, और मैं उसे देख-देखकर कुढ़ती ।
` मारे डाह के शायद सब मन्नी पर बीतती, और मैं यह सोने का
फूल खा. जाती । मन्नी हमारी. चिरंजीवर रहे, बस, जइकी-लड़का
दोनो है । हमें न चाहिए 1”
जावू राघारमण ने हँसते हुए कहा--“ग्ररे, तुमने तो श्वासी
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