लोकलाज | Loklaj

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Loklaj by जय प्रकाश - Jay Prakash

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about जय प्रकाश - Jay Prakash

Add Infomation AboutJay Prakash

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
लोकलाज ५ से बोली--'तो थ्रब इसके चाने का क्या होगा ? कोई चिट्ठी नहीं, पत्री नहीं । घड़ाम से थ्रा पड़े ।” 'हम बतायें, क्या नाम ।' 'तू कया बतायेगा, जो है सो--भोलाने माधोको डांटते हुए कहा--बीबी जी, जो है सो सोहल और पपड़ी बेकार थोड़े ही जायेगी !' 'हां यह ठीक है'--महामाया ने बचाव का साधन निकलता देख हांजी भरी । रेखा का मन रो रहा था कि उसके घर का एक. आदमी या है श्ौर उसे बीस दिन की बासी सोहल और पपड़ी मिलेंगी । माधो ने कहा--'बया नाम, हमारी भी तो बात सुनो ! हम लाये हैं टेटे में बांध के । खा लेंगे श्रौर सो रहेंगे । एक दिय ही की तो नात है ।' महामाया ने पुछा--' क्या खाने को भी मालकिन ने मना कर दिया है।' उसने उत्तर दिया, नाहीं, हम, क्या नाम है ? रेखा को समभते हैं छोटी बहिन तो भला कोई छोटी बहिन के यहां खाता है । मालकिन ने खुब रेंट में बांध दिया है । चार छर दिन तो शायद पार हो ही जायें ।' वाहं --' रेखा कौ लगा जैसे महामायः सास, मां ओरत न होकर सिं वाह्‌ है । विधवा होने के नाते जरूर मांग हीं भरतीं, लिपिस्टिक नहो लगाती --किन्तु फिरभीवे क्या काम दुनिया से श्रलग करती हैं । रंखा के जेवर घिसने के डर से उततरवा लिये किन्तु रब मी हाथों में सोने की. चूड़ियां भनभनाती है ? तस्त सिफ॑ माला फेरते वक्त ही इस्तेमाल ही करती हैं ।




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now