संचारिणी | Sncharini

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भक्ति-काङ की अन्तचतना है! लौकिकं जीवन को हमने आध्यात्मिकं सस्कृति-ढारा लोकोत्तर बनाया हं । परिचमीय सभ्यता लौकिक है, मतएव बह का कै जीवन के, ऊपरी ढाँचे (आकार) को ही देखती हूँ वहाँ इसी बर्थ मे कला कला के लिए है। किन्तु हम सुन्दरम्‌ के स्थूरु ठचि में सूक्ष्म चेतना को देखते हे, इसी लिए सुन्दरमु से पहिले सत्यम्‌-दिवम्‌ कहकर मनो भाष्य कर देते है। इस प्रकार हम उस चेतना को ग्रहण करते हे जिसके द्वारा सौन्दर्य साधार एवं अस्तित्वमय हं । हम अपनी सस्कृति मे एक कवि है पर्तिमं अपनी न्वता में एक वैज्ञानिक । स्थूछता (पाधिवत!) के ही रहस्यो मे निमग्न रहने के कारण वह निष्पाण शरीर को भी अपनी वैज्ञानिक प्रयोग-शाला में रखने को तैयार है, जब कि हम उसे निस्तार मानकर महाइमलान को सिपुरदें कर देते है। जो हमारा त्याज्य हे वह॒ पर्चिम का ग्राह्म हूँ, इसी लिए वह उसे कंब्रो और म्यूजियमो मे संजोये इए है । हमारा जो ग्राह्य ह, उसे हम संजेति हे काव्य मे, सगीत मे, चित्र मे, मूति मे--ग्यक्ति की.स्मृूनि को अर्थात्‌ उसकी अद्द्यं चेतना को । हमारे ये चित्र, हमारी ये मृत्तिया जडता की प्रतिनिधि नहीं, जब हमने शरीर को ही सत्य नही माना तव मूत्ति को क्या मानेंगे ! हम मूत्ति को ही. सम्पूर्ण ईदवर नहीं मानते। जव कोई मूत्ति खण्डित कर दी जाती हं तव हम यह्‌ नही समते कि ईदवर का नाथ हो गया, बल्कि प्‌




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