गलतियों का मनोविज्ञान भाग - 1 | Galtiyo ka Manovigyan Part - 1

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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विषय-प्रवे डॉ 9 नात्मक समूहों को विज्ञान कहना चाहिए या नही । जिन लक्षणों से ये रोग-चितन्र वनते है, उनके झारम्भ, काये की रीति, और आपसी सम्बन्ध का कुछ पता नहीं चला है । या तो मस्तिष्क में होनेवाले प्रदशन-योग्य परिवर्तनो से उनका सम्बन्ध जोडा ही नही जा सकता, अथवा यदि जोडा भी जा सकता है तो सिर्फ ऐसे परि- वर्तनो से, जो किसी भी तरह उनकी व्याख्या नही करते। इन मानसिक विक्लोभो पर इलाज का असर तभी होता है जव यह पता चल जाए कि वे किस शारीरिक रोग के कारण हुए है । मनोविश्लेपण इसी कमी को दूर करने की कोशिश कर रहा है। यह मनझ्चि- कित्सा को वह मनोवैज्ञानिक आधार देने की भ्राशा रखता है, वह सामान्य खोजना चाहता है, जिसपर शारीरिक मानसिक रोग का श्रापसी सम्बन्ध समझ में आरा सके । इस उद्देद्य को पूरा करने के लिए उसे सब तरह के बाहरी, पहले से बने हुए विचारो को--चाहे वे शरीर-सम्वन्धी हो, श्र चाहे रसायन- सम्बन्ची या कार्थिकी-सम्वन्घी हो--दूर रखना होगा;श्रोर शुद्ध रूप से मनोवैज्ञानिक ढग के विचारों से वास्ता रखना होगा श्रौर इसी कारण मुझे यह डर है कि शुरू में यह श्रापको अजीव लगेगा । श्रगली कठिनाई के लिए में झ्ापको, श्रापकी शिक्षा को, या झ्रापके मानसिक ढग को दोपी नहीं वताऊगा । मनोविदलेषण के दो सिद्धान्त एंसे है जो सारी ढनिया को नाराज़ करते हैं, वोड्धिक पूर्वेग्रहो' भ्र्थात्‌ वने हुए सस्कारो को चोट पहुचाता है श्रौर दूसरा नतिक तथा सौन्दयं-सम्बन्ची या को इन पूर्वग्रहो को मामूली चीज़ नहीं समभना चाहिए । ये वडी जबर्दस्त चीज़ हैं और मनुष्य के विकास की मजिलो के कीमती श्रौर आवश्यक झ्रवणेप है । उन्हे भाव- नाझो के वल से कायम रखा जाता है श्रौर उनसे वडा कडा मुकावला है । मनोविदलेषण की इन वुरी लगने वाली वातो में से पहली यह है कि मानसिक प्रक्म झसल में अचेतन * (अर्थात्‌ अज्ञात ) होते हूं, और जो चेतन (भ्रर्थात्‌ ज्ञात ) होते हैं, वे कोई इक्के-डुक्के काम होते है, ओर वे भी पूर्ण मानसिक सत्ता के हिस्से होते है । अव श्राप जरा यह याद कीजिए कि हमें इससे विल्कुल उल्टी, श्र्थात्‌ मानसिक और चेतन को एक समभकने की, श्रादत पडी हुई है । चेतना--हमें मानसिक जीवन को सुचित करने वाली विशेपता मालूम होती है श्रौर हम मनोविज्ञान को चेतना- सम्बन्धी श्रव्ययन ही समझते है । यह वात इतनी साफ श्रौर सीघी लगती है कि इसका खण्डन विलकुल बकवास मालूम होता है, पर फिर भी मनोविश्लेंपण को तो इसका खण्डन करना ही होगा और चेतन तथा मानसिक को एक मानने का विरोध करना ही पड़ेगा । के श्रनुसार मन की परिभाषा यह है कि इसमें अनुभूति, विचार भर इच्छा के प्रकम होते है, श्र मनोविदलेपण यह कहता कक. लकी जन व जज जी




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