फूल बच्चा और ज़िन्दगी | Phool Bachcha Aur Zindagi

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Phool Bachcha Aur Zindagi by देवेन्द्र इस्सर - Devendra Issar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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चनार को पेड विनय मेश दोक्त है शरीर श्रपने सारे दोस्तों की तरह मैं उसमे प्यार करता हूं | वढ मुके कप, केसे, कहां और क्यों मिला, यह एक गेरज्रूरी तफ़्तील है | लेकिन जत्र वह मुझे मिला, तो में श्रपना घर- बार छोड़ कर जीविका की खोज में दिल्‍ली की तंग गलियों ओर नचोड़ी सड़कों पर बेकार घूम रहा था और वह पानी की ब्रोतलों में कार्बोलिक एपिड गैस भरने के काय में व्यश्त था | दिन भर वह घूम-फिर कर नोतलें बेचता था और रात मर पलक भापकाये भिना बोतलें भरने के काम मे लगा रहता था एकं बार उशी पलक भकं गो थी, तो गत के ज़ोर से एक बोतल टूट गयी और शीशे के टुकड़े उप्के चेहरे और बाजू पर जा लगे थे | उन ज़ख्मों के निशान उसके माथे और बांहों पर श्रभी तक मोजूद हैं । शायद इसी लिए, वह बार बार कहा करता दोस्त, चौकस रहना | पलक न करने पये, नदीं तो उमर भर श्रपने चेहरे और बाजू पर ज़ख्मों का निशान लिये करं छिपते रोगे ? मेरे दिल्‍ली आने के कुछ दिन बाद्‌ ही वह भौ बेरोज्ञगार हो गया। उन्ही दिनों “कोका कोला की प्रविद्ध फं ने श्रपना कारखाना दिल्ली में खोल दिया था और विनय के पास बोतलें भरने के जितने क्रीमती फारमूले थे, सत्र बेकार हो गये और वह स्वयं दिल्ती की लम्बी-लम्री सड़कों पर रात दिन घूम-घूम कर सोचने लगा कि क्यों न वह “कोका कोला की फम्म में नोकरी कर ले | लेकिन उसने कोका कोला, की फर्म में नौकरी न की । शायद उसने कोशिश की, पर जगह ने मिली




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