मील के पत्थर | Miil Ke Patthar

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Miil Ke Patthar by रामवृक्ष बेनीपुरी - Rambriksh Benipuri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१२ मील के पत्थर स्कूल की ओर से स्टेशन की ओर मेरी दिशा बदल गई ॥ स्टेशन पहुंचकर उस थर्ड क्लास के डब्बे की श्रोर बढ़ा, जिसमें तुम सफर कर रहे थे । भ्राज भी याद है बापू, तुम्हारे दर्शनों के लिए मेरे मन में कसा तूफान उठ रहा था, पर डगमगा रहे थे, कलेजा धड़धघड़ कर रहा था। मैं तुम्हें देखूंगा--कसे होगे तुम ? तुम--कर्मवीर गांधी ! तुम्हारे कई चित्र देखे थे, विःतु क्या चित्र सही रूप दे पाते हैं ? उन चित्रों में दो चित्र प्रमुख थे : एक, जब तुम एक ढीला कुर्ता पहने, कंधे से एक भोला लट- काये, हाथ में डंडा लिये सत्याग्रह के लिए प्रस्थान कर रहे हो । दूसरा, तुम्हारे बदन में मिजंई, सिर पर काठियावाड़ी मुरेठा--ढीला-ढाला । मैं जल्दी-जल्दी उस डब्बे के निकट पहुंचा, जिसके दरवाजे पर कुछ लोग खड़े थे । हां, कुछ ही लोग ! मैं एक खिड़की के निकट खड़ा होकर भीतर भांकने लगा-- कितनी उत्सुकता से, कितनी व्यग्रता से ! किन्तु तुम कहां हो ? उन दोनों तस्वीरों के आधार पर एक-एक चेहरे को देख रहा हूं, किन्तु कहां पा रहा हूं ? एक सज्जन दीखे, गोरे- भभूके, काफी कहावर, चेहरे से रौब टपक रहा ! हां-हां, यही गांधीजी होंगे । जो इतना बड़ा आदमी है, जिसने कितने कमाल किये हैं, जो कर्म- वीरै, जो श्रकेला नीलहे गोरो से लडने चम्पारन जा रहा है-उसे तो ऐसा ही तेजस्वी, रौबदार, भारी-भरकम होना चाहिए ! किन्तु, उन चित्रों से जरा भी समता तो इस व्यक्ति में नहीं मिलती ! मैं इसी तरह परेशान था कि वह सज्जन मेरे निकट आये ক্সীহ बोले--गांधीजी को देख लिया ? “जी''* मेरे मुंह से पूरी बात भी नहीं निकली । उन्होंने बताया, वह, जो उस रौबदार झ्रादमी के आगे के बेंच पर बेठे हैं, वही गांधीजी हैं । बापू, तुम्हारी वह सूरत श्राज भी याद है ! रूखा-सूखा तुम्हारा चेहरा, जिसपर सबसे प्रमुख वे दोनों कान !--जसे संसार के सारे दुःख- दर्दे सुनने को व्याकुल। सिर पर वह टोपी--जो पीछे चलकर श्पने सुधरे रूप में गांधी-टोपी के शुभ नाम से भ्रभिहित हुई । शरीर में पतले कालर- वाला कूर्ता--खुरदरे कपड़े का । कमर में घुटनों तक की धोती और पेर




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