तुलसी - शब्दसागर | Tulsi Shabdsagar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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शरगार-श्रघात अगार- सं० झागार - १ झागार घर घामः रे ढेर राशि ३ छगाढी ४. प्रथम उ० 9. नगर नारि भोजन सचिव सेवक सखा अगार । दो० ४७१ गिन- सं० अभि -आग | हर गिनि- सं० अधि -ओआर । उ० अगिनि थापि सिधथिलेस कुसो दक लीन्देड । जा० १९१ अधणिनिषपा ऊ- स० असि + सामग्री सं० या. सामान फा० अध्िहोत्र वी सारी सामत्री 1 उ ० असुघती अरु अगिनिसमाऊ । सा ० २१८७३ त्रगिले- सं० अब्र -१. आगे आनेवाले आगामी रे. प्राचीन पुरखे। उ० 9. न कह विलंब विचार चारुमतिं बरष पाछिले सम अगिले पल । वि० २४ अगुश्नाई - सं० अपर भ्रश्रणी होने की क्रिया मार्ग-प्रद्शल उ० कियड निषवादनाथु अपुश्राई । सा० रा२०३।३ अगुण- सं० -१. गुणरहित सूख २. निगुंण ब्रह्म । अरगुन- सं० अगुण -१. निगुंश सत रज और तम गुणों से रहित त्रह्म २. सूर्ख ३. दोष । उ० 9. पेखि भीति प्रतीति जन पर अगुन अनघ अमसाय । वि० २२० रे. पुन अलायक आलसी जानि अधम अनेरो. | ब्रि० २७२ ब्ुनहि-१. अगुन या निर्गुण में २. झगुन था. नियुंण को । उ० सगुनदिं अगुनहि नहिं कल सेदा । मा ० १199 ६1१ ्रगुनी-धसि० झ + गुण तरल |-जिस पर गुना न जा सके जिसका वर्णन न हो सके अथाह गंभीर। उ+ ऐसो अनूप कहें तुलसी रघुनायक की अगुनी गुन-गाहिं । क० ७1११ श्रागुद्न- सं० -जो गुद्य न हो प्रकट । अ्गेह- सं २ -बिना घरबार का जिसका ठिकाना कहीं न हो ।उ० अकुत् अगेह दिगंबर ब्याली । सार १७६1३ उरगेहा-दे० अगेह । उ० तुम्ह सम अबन मिखारि अगेहा। सा० 9199२ गोचर- सं० -जा इंदियों से न जाना जा सके अव्यक्त । उ० मन बुद्धि बर बानी अगोचर प्रगट क्रि कैसे करे । सा० १३३२ उग्य- सं० अजञ -मूखं बेसमभ । उ० कीन्ह कपड़ मैं संखु सन नारि सहज जड़ अग्य । सा० 91७ क शग्यता-सं० अज्ञता -अज्ञान मूखंता । उ० तम्य कृतज्ञ अग्यता मंजन । सा ७1३४३ अग्या- सं आज्ञा -श्रादेश आज्ञा हुक्म । उ० झग्या सिर पर नाथ तुम्हारी । सा० १७७1२ तग्याता- सं० अज्ञात -अनजान में न जानने से । उ० अनुचित बहुत कहेडं अग्याता । सा ० १२८२३ तप- सं० -१. आगे २. मुख्य ३. एक वैश्य राजा का _ नाम ४. सिरा श. अन्न की सिक्ा का एक परिमाण जो मोर के ४८ झअडों के बराबर होता है। उ० 93. चली अगर करि प्रिय सखि सोई | मा० 9२२९४ श्रग्रकूुत- सं० -आगे का किया हुआ पहले. का बनाया हुआ | शरग्रगण्यं- सं० -जिसकी गणना पहले हो श्रेष्ठ । उ० दूनुज बनकुशानुं ज्ञादिनामश्रगणयस्‌। मा ० २१२लो ०३ ऑप्रणो- सं० -अपुआ श्रेष्ठ । उ० जयतिं रुदाश्रणी विश्व- विद्याशणी दि २७ अव- स० 9. पाप २. दुम्ख ३. व्यसन ४. कंस के | सेनापति का नाम । उ० 9. केहि झघ झवगुन आपनों करि डारि दिया रे। वरि० ३३ . २. बरवि बिस्व हरपित करत दृरत ताप अघ प्यास । दो० ३०७८/ तघमोचनि- स० अघ +-मोचन -पापों का. नाश करनेवाली । उ० कीरति बिमल बिस्व-अघमोचनि रहिहि सकल जग छाई । गी० 913३ अघरूप-जिसका स्वख्प ही पाप हो बहुत बड़ा पापी । उ० तद॒पि सदीसुर आप बस भये सकल अघख्प । मा ० 919७5 उघह्ारा- सं० अघन दर पापों के नाश करनेवाले । उ० गुनगाहकु अवगुन घ्घहारी | सा० २२४८२ . शघय- सं० अर +-घटो-१ जो घटित न हो सके २. कठिन ३ झयोग्य ४. जो कम न हो . एक रख । उ० 1. अघट-घटना-सुघट सुबट-विघटन-विकट । थि० २१ ग श्रबटित-१ अर्सभव रे. जो हुआ न हो ३. अशरय होने- वाला अनिवार्य ४. अनुचित श. बहुत अधिक । उ० १ तिन्हहि कहत कछु अवटित नाहीं । सार 91१35 ३ ३. काल कम गति अघटित जानी । मा र१६९।३ ब्रचरितिघयन-असंभव को संभव करने बाले । उ० अघटित- घटन सुघट-बिघटन ऐसी विरुदावलि नहीं शान की वि०३० ग्रचाइ-सं आधघाण न नाक तंक -१. छुककर पेट भर कर तृ्त होकर र. पूर्णतम ३. अबकर । उ० १. सा तनु पाइ अघाइ किये अघ। वि १३४ रे. दीन सब अंगहीन छीन मलीन अधी अवाइ । वि ४१ अधघाई-१. प्रसन होकर तृप्त होकर २. पूर्णतम । उ० 9. गुरु साहिब अनु- कूल अघाई । मा+ २२३०१ । रे. जनम लाभ कई अवधि अघाई । सा० राशर४ दघाउंगो-ग्रघाऊंगा तृप्त होऊँगा। उ० घरिहैं नाथ हाथ माथे एहि तें केहिं लाभ अघाउँगो ? गी० श1३० द्रघाऊँ-तृप्त हो ऊँ दृप्ति पाऊँ । उ० प्रभु बचनामूत सुनि न आघाऊँ। मा० ७। दप्1१ श्रबात-अ्घाते तूप्त होते । उ० देत न अघात रीकि जात पात आक ही के भो लाना थ जोगी जब झ्रोढर दरत हैं । क+ ७१५४ दवाता-वूष्ठ होता या दूष होते । उ० परम प्रेम लोचन न अघाता । मा० ३२१२ नाति- तृप्ति होती है वृष्ि होती । उ० चाहत मुनि-मन- अगम सुकत-फत मनसा अघ न की । वि० २३३ अवाती-वूप्त होती । उ० जासु कपा नहि कृपा छघाती | सा० १1२८२ श्घाने-तूप्त हुए। उ० भाव भगति झानंद अघाने । सा० २१०८१ श्र बनो-झघाया हुआ तूस । उ०५ लखे अघानो भूख ज्यों लखे जीति में हारि | दो० ४४३ शवाय-अवाकर पूर्णतः । दघाहिं-अघाती हैं तू्त होती हैं या तू होते हैं। उ० नहिं अघाहि अनु- राग सांग सरि भामिनि । जा० १२० ग्रघाही-तूप्त होते हैं भरते हैं या भरती हैं। उ ० नहिं पट कटि नहि पेट अघाहीं। मा ० २।२११।३ श्रचाहूं-तूप्त हों । उ० रामभगत अब अमि अघाहूँ। मा० २२०४३ . + घाउ-वृष्ति सतुष्टि। उ० भरत सभा सनमानि सराहत होत न हृदय अघाउ । वि० १०० अवात- सं० आघात - चोट आघात । उ० लात के अवात सड्े जो में करे दा हैं । कर श३




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