सन्तानविज्ञान | Santanvigyan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सन्तान-चिज्ञ ने जा सकता है कि उस अद्भुत दृश्यसे होनेवाले सुखकी हम पहले ही इच्छा किये बेठे थे ? कदापि नहीं । सच तो यह है कि उस समय सुखकी इच्छा किये बिना ही हमें सुख मिला। अब इस उदाहरण से पाठकगण सममः सक्ते है कि संन्यास मागेबाली सुखकी व्याख्या कहाँतक ठीक है। वास्तवमें बात यह है कि इन्द्रियॉमें वस्तुओंके उपभोग करनेकी शक्ति स्वाभाविक ही मौजूद रहती है आर जब कभी उन्हें अनुकूल या प्रतिकूल विषयकी प्राप्ति हो जाती है तब पहले इच्छा या तृष्णाके न रहनेपर भी हमें सुख- दुःखका अनुभव हुआ करता है । इसीसे गीतामें कह भी है कि,-- मात्रास्पशांस्तु कोन्तेय शीतोष्ण सुखदुःखदाः । आगमापायिनोऽनित्यास्तास्तितिक्षस्व भारत ॥ शस श्लोकका अभिप्राय यही ই कि जब सृष्टिक वाह्य पदा्था- का इन्द्रिय स्पशे होता है तब सुख या दुःखकी वेदना उत्पक् होती है । इससे शात होता है कि वाह्य सुखश्ा स्वरूप केवल इन्द्रियोंके अधीन है ओर इसीसे कभी-कभी इन इन्द्रियोंके व्यापारों- को जारी रखनेमें ही सुख मालूम होता है, चाद्दे पीछे उसका परि- शाम कु भी क्‍यों न हो। सुख-दुःख के सम्बन्धमें गीताका यद्दी मत है कि ये दोनों स्वतंत्र और भिन्न क्षृत्तियाँ हैं। यद्यपि सुखके खाधन चाहे जितने प्राप्त हों, फिर भी इन्द्रियॉकी इच्छा बराबर ` बढ़ती ही जाती है, सुखोपभोगसे सुखकी इच्छा कभी तृप्त नहीं डोती ओर असम्तोषसे दुश्ख दोता है तथापि इससे यह नहीं कहूऐ 8




User Reviews

  • Rahul Duhan

    at 2020-09-07 10:30:17
    Rated : 6 out of 10 stars.
    इस पुस्तक के पृष्ठ नंबर 101 से 111 गायब हैं। अगर आपके पास है तो कृपया भेजने का कष्ट करें अथवा बताये की सम्पूर्ण किताब कहाँ मिलेगी। हम खरीदने को भी तैयार हैं
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