साहित्य का सपूत | Sahitya Ka Sapoot

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Sahitya Ka Sapoot by जी. पी. श्रीवास्तव - G. P. Shrivastav

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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७ पहला अद्ध संसारी--बेशक | क्योंकि मैं हिन्दुस्तानी आदसी हूँ। हिन्दी को अपनी साद्-भाषा जानता हूँ। इसलिए जो बोली या शब्द मै जन्म से बोलता आता हैँ, उसी को हिन्दी सममभता हैं । साहित्यानन्द--आहाहाहा ! आहाहाहा ! उुम्हारी समम साहित्यिक नहीं है।-कारण ? तुम साहित्य को नहीं जानते, इसीलिए ऐसा कहते हो। संसारी--( हाथ जोढ़ कर 9) तो कृपा कर मुझे भी साहित्य से जान-पहचान करा दीजिए, ताकि मेरी भी सम आपकी सी हो जाय । काहे को इतनी सी बात की कमी के लिए मँ सदा नासम बना रू ! ; साहित्यानन्द--अच्छी बात है । परन्तु इसमे तुम्हारा बड़ा समय लगेगा] संसारी--कुछ भी नदीं ! मैं तो अभी चलने को तैयार हँ। चलिए मुझे ले चलिए | साहित्यानन्दू--कहा ? संसारी--अपने साहित्य जी के पास, उनसे जान- पहचान कराने । अब तो बिना उनसे मिले मुभसे रहा न जायगा } ( दाथ जोड़ कर वस अब ले चलिए। देर न कीजिए । साहित्यानन्द--( घबरा कर ) अरे ! तो साहित्य कोई अनुष्य थोड़े ही है, जो तुम्दे ले जाकर उससे भेट कराऊँ ९




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