जैन पर्व | Jain Parv

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ १० ] हुए महावीर एक बार लाट देश (बगाल) में पहुँचे । बहां नग्नावस्था में महावीर को देखकर लोग उन पर लाटी, पत्थरों का प्रहार करते, उन पर छू-छू कहकर कुत्त छोड़ देते तथा जनेक प्रकार के उपसग करते । महावीर इन उपसर्गो की तनिक भी परवाह किए बिना आगे बढ़ जाते । लोगों के इस घोर उपसगं को देख कहा जाता है कि इन्द्र ने एक बार उनके सामने श्रस्ताव रखा कि भगवन्‌ ! मैं आपको घोर सद्भूटों के बीच देख रहा हैँ । साधना का मार्ग बड़ा कटकाकीणं है, यदि आज्ञा हो तो मैं आपकी परित्र्या में रहूँ, आप पर कोई दंवीय और मानवीय बित्ति नहीं आ सकती । इन्द्र के वचनों को सुनकर महावीर का पौरुष पुनः एक बार प्रदीप्त हो उठा। वे बोले-- इन्द्र | साधना के लिए सहायता की अपेक्षा नहीं होती, यदि इसी प्रकार की सहायता की अपेक्षा होती तो घरबार और महल छोड़ने की क्या आवश्यकता थी ? ये मिट्टी, ढेले और पिण्ड मेरी आत्मा का कुछ भी बिगाड़ नहीं कर सकते । आत्म- विकास के मार्ग पर चलने वाले व्यक्ति को स्वावलम्बी होना आवश्यक है। स्व की अभिव्यक्ति के लिए स्वतः साधना करनी होगी । कोई भी आत्मवीर किसी इन्द्र, महेन्द्र ओौर चक्रवर्ती के बल परन स) सिद्धि प्राप्त कर सका और न प्राप्त कर ककेगा । महावीर की वाणी को सुनकर आत्म बलो का इन्द्र को कुछ बोध हुआ और वह इस प्रकार के बल की कामना करता हुआ लौट आया। महावीर की साधना मौन साधना थी, उसमें दिखाव्रट क! एक संर भी नहीं था। जब तक उन्हें पूर्ण ज्ञान की उपलब्धि नही हो गई तब तक उन्होने किसी को उपदेश नहीं दिया । जब तक तत्त्व का पूर्ण साक्षात॒कार नहीं हुआ, तब तक उपदेश देना उनकी द्रष्टि में वुधा था, उसका कोई सूल्य नहीं था। वे कथनो और करनी में कोई अन्तर नही समझते थे । वेश!ख शुक्लादशमी, २६ अप्रैल ५५७ ईसा पूर्व का वह दिन चिरस्मणीय रहेगा, जब जृम्भक नामक ग्राम में पहुँचकर अपराह्न समय में सालवृक्ष के नीचे एक चद्टान पर ध्यान लगाकर उन्होंने घातिया कर्मों का नाश कर केवलज्ञान प्राप्त किया । उस दिन से भगवान्‌ सर्वज्ञ और स्वंदर्शी के रूप में प्रसिद्ध हो गये । कर्मों के विजेता होने के कारण वे जिन कहलाए । जिन होने के बाद उनका पहला उपदेश श्रावण कृष्णा १ (प्रतिवदा) रवि वार १८ जुलाई ५५७ ईसा पूर्व को बिपुलाचल पर्वत पर हुआ। इस




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