कल्याण भाग 6 | Kalyan Volume-6

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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संध्या ६] श्रीकृष्णठीलाका चिन्तन १०७९, अधिकारी हैं खामिन्‌ ! तथा जो तुमसे बिपुखं हैं, वे तो सृत ही हैं । भला--धींकनीमें भी तो वायु आती-जाती है ! तुम्हारे चरणोंसे परादसुख रहतेवाले प्राणियोंका श्वास छेना ठीक ऐसा ही है देव ! व्यर्थ है इनका जीवन--- तय इव श्वसन्त्यसुझतो यदि ते5ज्ुविधा। 17% अथवा ये पतित पुत्रकी श्रेणीमें हैं; तुम्हारी मायाके पोष्य पुत्र हैं प्रमो ! ये पितुसम्पदूके अधिकारसे वल्चित रहेंगे ही; रहते ही हैं । इन्हें कैते मिले तुम्हारे भवग्वालाहारी पादारविन्द्की शीतल झान्तम छाया १ और भगवन्‌ ! वे तुम्हारे अनुप्रहके अनुभवमें ही निमम्र रहनेचाले अथवा तुम्हारी अनुकम्पाकी ही लिये बैठे रहनेवाले, प्रारू्धको निर्विकारभावते भोगनेवाले, तुमपर ही अपने कायमनोवाक्यसे न्यौछावर होकर जीवन धारण करनेवाले भक्तगण कैसे न कृतार्थ हों ? बिना परिश्रम बड़ी सुगमतासे ही वे तो हो ही जायँगे तुम्हारे नछिन-सुन्दर श्रीचरणोंकी . सेवा-प्राप्तिरप महासम्पदूके दायभागी ( अधिकारी ) । उनके अनादि. संसरणका अन्त हो जाय; भववन्धनसे वे मुक्त हो जायेँ--तुम्हारे चरणाश्रयका यह आनुषह्लिंक फल भी उन्हें मिल जाय, इसमें तो कहना ही कया है नाथ ! तते5जुकस्पां सुसमीश्षमाणों भसुज्ञान पएवात्मछुतं विपाकम्‌ | छृद्ाग्वपुर्भिविदधन्नमस्ते जीवेत यो मुक्तिपदे स दायमाक्‌ ॥ ( श्रीमद्भा० १० | रै४। ८ ) तातें तब भगतिषह्ि अनुसरे। तुम्डरी छुपा मनायी करे ॥ कब सो पर नँदनंदून ढरिहें। मघुर कटाच्छ चिते रस भरि हैं ॥ निज मारव्ध कर्म-फठ खाइ । अनासक्त, नेंक न रुरूचाइ ॥ असर अति तप-कठेस नईिं करे । श्रवन-कीर्तन-रस संचरे ॥ इद्टि बिधिजिये सुभागदि पाये। मरथो कहा कोउ झगरन आये ॥ न न न # वेद्स्तुति श्रीसद्भा० १० | ८७ १७) एहि ते हे जगदीस, भक्ति सुगम तव जीव कहूँ । अपर न सोहि कट दीस, भक्ति बिना हे नंद्सुत्त ॥ जो नर चतुर होइ जग कोई । तब कटाच्छ चाहै मन सोई ॥ कब कटाच्छ करिंहें जदुनाथा । यह बंछे चित सुनि हरि गाथा॥ निज अर्जित जे कर्म पुराने । भर अरु मंद किये जस जाने ॥ तस फल ले करे सो भोगा । अनासक्त भोगे बिन सोगा ॥ अति केस तप भादिंक त्यागी । तव पद संतत है जजुरागी ॥ एहि विधि जे जीवत हैं प्रा नी । भये सुक्तिभागी ते जानी ॥ भक्तिरससे सिक्त हुए मन-बुद्धिइन्द्रियोंका यह. एक सखाभाविक लक्षण है--मानका सर्वथा अभाव होकर सचे दैन्यका हो जाय, अपनी हीनताका; दोष- मयताका भान होने गे | पितामह इसी स्थितिमें आ पहुँचे हैं | इसके अतिरिक्त त्रजराजकुमारके अमृतस्पन्दी अधरोंपर एक स्मित नित्य विराजित रहता है, उनके एक विचित्र स्पन्दनकी रेखा-सी सतत रहती है । कब क्या अर्थ रखते हैं ये--इसका अन्त आजतक किलीको मिला ही नहीं । हाँ, भावदर्पणरमें इन स्मित एवं स्पन्दनकी छाया पड़ती है; तथा द्पणके अनुरूप ही इस छायासे प्राणोमिं कुछ-न-कुछ अभिनव सद्देत झर पढ़ता है प्रत्येकके लिये प्रत्येक झाँकीमें ही । यही बात पर्मयोनिके छिये हुई । उन्होंने देखा श्रीकृष्णचन्द्रके चारु चश्चल नयनोंकी ओर, मन्दस्मितकी ओर तथा देखते ही उनके मनने इंस बार एक नया अर्थ ले छिया उनसे | ये मानों कह रहे हों--'पितामह ! मेरे भक्त तो तुम भी हो, अतः मेरे महदासम्पंदुके *दायमाक्‌' भी तुम हो ही |” 'फिर तो वेदगर्भ व्याकुल हो उठे इस भावनासे | अपनी दीनता, तुच्छता, न्रजराजकुमारके असमोद्ध ऐश्वर्यकी स्पूर्ति; उनके प्रति किये हुए अपरघकी स्पृति; आत्मग्छानि--एक साथ अनेक भावोंका प्रवाह, बह चला उनके; अन्तस्तलमें । इसीछिये स्तवनकी धारा भी बदल गयी और वे कहने ठो--ओह / प्रभो | भक्त मैं नहीं हूँ नाथ ! होता तो मेरे द्वारा ऐसी ध्टता नहीं




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