कल्याण भाग 6 | Kalyan Volume-6
श्रेणी : पौराणिक / Mythological
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
5.49 MB
कुल पष्ठ :
76
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)संध्या ६]
श्रीकृष्णठीलाका चिन्तन
१०७९,
अधिकारी हैं खामिन् ! तथा जो तुमसे बिपुखं हैं,
वे तो सृत ही हैं । भला--धींकनीमें भी तो वायु
आती-जाती है ! तुम्हारे चरणोंसे परादसुख रहतेवाले
प्राणियोंका श्वास छेना ठीक ऐसा ही है देव ! व्यर्थ
है इनका जीवन---
तय इव श्वसन्त्यसुझतो यदि ते5ज्ुविधा। 17%
अथवा ये पतित पुत्रकी श्रेणीमें हैं; तुम्हारी मायाके
पोष्य पुत्र हैं प्रमो ! ये पितुसम्पदूके अधिकारसे वल्चित
रहेंगे ही; रहते ही हैं । इन्हें कैते मिले तुम्हारे
भवग्वालाहारी पादारविन्द्की शीतल झान्तम छाया १
और भगवन् ! वे तुम्हारे अनुप्रहके अनुभवमें ही निमम्र
रहनेचाले अथवा तुम्हारी अनुकम्पाकी ही
लिये बैठे रहनेवाले, प्रारू्धको निर्विकारभावते भोगनेवाले,
तुमपर ही अपने कायमनोवाक्यसे न्यौछावर होकर
जीवन धारण करनेवाले भक्तगण कैसे न कृतार्थ हों ?
बिना परिश्रम बड़ी सुगमतासे ही वे तो हो ही जायँगे
तुम्हारे नछिन-सुन्दर श्रीचरणोंकी . सेवा-प्राप्तिरप
महासम्पदूके दायभागी ( अधिकारी ) । उनके अनादि.
संसरणका अन्त हो जाय; भववन्धनसे वे मुक्त हो
जायेँ--तुम्हारे चरणाश्रयका यह आनुषह्लिंक फल भी
उन्हें मिल जाय, इसमें तो कहना ही कया है नाथ !
तते5जुकस्पां सुसमीश्षमाणों
भसुज्ञान पएवात्मछुतं विपाकम् |
छृद्ाग्वपुर्भिविदधन्नमस्ते
जीवेत यो मुक्तिपदे स दायमाक् ॥
( श्रीमद्भा० १० | रै४। ८ )
तातें तब भगतिषह्ि अनुसरे। तुम्डरी छुपा मनायी करे ॥
कब सो पर नँदनंदून ढरिहें। मघुर कटाच्छ चिते रस भरि हैं ॥
निज मारव्ध कर्म-फठ खाइ । अनासक्त, नेंक न रुरूचाइ ॥
असर अति तप-कठेस नईिं करे । श्रवन-कीर्तन-रस संचरे ॥
इद्टि बिधिजिये सुभागदि पाये। मरथो कहा कोउ झगरन आये ॥
न न न
# वेद्स्तुति श्रीसद्भा० १० | ८७ १७)
एहि ते हे जगदीस, भक्ति सुगम तव जीव कहूँ ।
अपर न सोहि कट दीस, भक्ति बिना हे नंद्सुत्त ॥
जो नर चतुर होइ जग कोई । तब कटाच्छ चाहै मन सोई ॥
कब कटाच्छ करिंहें जदुनाथा । यह बंछे चित सुनि हरि गाथा॥
निज अर्जित जे कर्म पुराने । भर अरु मंद किये जस जाने ॥
तस फल ले करे सो भोगा । अनासक्त भोगे बिन सोगा ॥
अति केस तप भादिंक त्यागी । तव पद संतत है जजुरागी ॥
एहि विधि जे जीवत हैं प्रा नी । भये सुक्तिभागी ते जानी ॥
भक्तिरससे सिक्त हुए मन-बुद्धिइन्द्रियोंका यह. एक
सखाभाविक लक्षण है--मानका सर्वथा अभाव होकर
सचे दैन्यका हो जाय, अपनी हीनताका; दोष-
मयताका भान होने गे | पितामह इसी स्थितिमें आ
पहुँचे हैं |
इसके अतिरिक्त त्रजराजकुमारके अमृतस्पन्दी अधरोंपर
एक स्मित नित्य विराजित रहता है, उनके एक
विचित्र स्पन्दनकी रेखा-सी सतत रहती है । कब क्या
अर्थ रखते हैं ये--इसका अन्त आजतक किलीको मिला
ही नहीं । हाँ, भावदर्पणरमें इन स्मित एवं स्पन्दनकी
छाया पड़ती है; तथा द्पणके अनुरूप ही इस छायासे
प्राणोमिं कुछ-न-कुछ अभिनव सद्देत झर पढ़ता है
प्रत्येकके लिये प्रत्येक झाँकीमें ही । यही बात पर्मयोनिके
छिये हुई । उन्होंने देखा श्रीकृष्णचन्द्रके चारु चश्चल
नयनोंकी ओर, मन्दस्मितकी ओर तथा देखते ही उनके
मनने इंस बार एक नया अर्थ ले छिया उनसे | ये मानों
कह रहे हों--'पितामह ! मेरे भक्त तो तुम भी हो,
अतः मेरे महदासम्पंदुके *दायमाक्' भी तुम हो ही |”
'फिर तो वेदगर्भ व्याकुल हो उठे इस भावनासे | अपनी
दीनता, तुच्छता, न्रजराजकुमारके असमोद्ध ऐश्वर्यकी
स्पूर्ति; उनके प्रति किये हुए अपरघकी स्पृति;
आत्मग्छानि--एक साथ अनेक भावोंका प्रवाह, बह
चला उनके; अन्तस्तलमें । इसीछिये स्तवनकी धारा भी
बदल गयी और वे कहने ठो--ओह / प्रभो | भक्त
मैं नहीं हूँ नाथ ! होता तो मेरे द्वारा ऐसी ध्टता नहीं
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