भोरे की बेला | Bheruo Ke Bela

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Bheruo Ke Bela by कमल शुक्ल - Kamal Shukl

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भोर कौ वेला | १७. “तुम्हें क्‍या देखे, मनोरमा ? तुम्हें तो रोज ही देखता हूँ 1” “मैं भी तुम्हें रोज देखती हूँ। मैं झूठ चहीं बोलती अनूप बावू ! जब से. तुम्हें देखा है, मैं पागल हो गई हूँ। तुम मेरे मन में बस गये हो। मेरी आंखों में समा गये हो । न जाने मुझे क्या हो गया है ! मैं खुद नहीं सोच पा रही हूँ। ' | अब श्रनूप बुरी तरह चौंक गया। वह आँखें फाड़-फाड़कर मनो रमा . की ओर देखने लगा था। उसने सपने में भी नहीं सोचा कि मनोरमा उसपर आसक्त हो जायेगी । वह्‌ धमं -संकट मे पड़ गया । उसके चेहरे पर हवाद्रयां उड़ने लगीं । - अभी अनूप सोच-विचार में ही था कि मनोरमा ने अपना सिर उसके दाहिने कन्धे पर टिका दिया 1 वह्‌ अधीर होकर बोली--“तुमने वतलाया नहीं, अनूप बावू, कि मैं तुम्हें कैसी लगती हूँ ? ” “तुम बहुत अच्छी हो, मतोरमा।” यह कहने के साथ अनूप अलग हटकर बैठ गया। मनोरमा को उसका यह व्यवहार बहुत बुरा लगा | वह चिढ़ गई और असन्तुष्ट होकर बोली---- “जव मदं औरत को प्यार करता है, तो वह उसका मृह-ही-मूंह देखा करता है; लेकिन जब औरत मर्द को चाहती है, तब मर्द ऐसे ही नखरे दिखलाता है। मैं पूछती हूँ कि मेरी देह में काँटे हैं कया, जो तुम अलग हटकर बंठ5 गये ? यह मेरा अपमात नहीं तो और क्या है ? ” “मैं तुमसे क्षमा चाहता हूँ, मनोरमा। मैंने तुम्हारा कोई श्रपमान नहीं किया] दिवाकर बाबू में क्या कमी है, जो तुम मेरी ओर झुक रही हो ? में नीलिमा के साथ को्ेशिप के लिए आया हूँ, मेरा व्याह उसके ध्षाथ होगा ।” “तुम कोर्ट शिप के लिए आये हो, तुम्हारा व्याह नीलिमा से होगा-- इससे मैं इन्कार नहीं करती, लेकिन मेरा भी मन तुम्हारी ओर वरबस ही खिच गया है। मैं***। ु अभी मनोरमा इतना ही कह पाई थी कि अनूप बीच में बोल उठा--- “मैं गलत कदम नहीं उठा सकता, मनोरमा ! मैं पटना में रहता हूँ, तुम मच्सूरी में रहती हो। मेरा और तुम्हारा साथ कभी नहीं हो/ त्या ।




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