अन्तर की और भाग 2 | Antar Ki Aur Bhag 2

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Antar Ki Aur Bhag 2  by मिश्रीमल जी महाराज - Mishrimal Ji Maharaj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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वास्तव मे शाति सतोप का ही दूसरा नाम है ५।९ वहन्ता तम पनः स्वाभाविक गुण है। इसलिये उसकी खोज आत्मा मे ही करनी चाहिये । आत्मा में शान्ति का अक्षय खज़ाना मौजूद है, उसे प्राप्त करने के लिये 'बाहर दौड- धूप करना व्यर्थ है । यह ज्ञान साधक को सर्वेप्रथम होता चाहिये | इसके बिता वह शात्ति को पाने के लिये न सही मार्ग पकड सकता है और न सही स्थान पर पहुच सकता है। जो व्यक्ति कपडा खरीदना चाहता है उसे कपड़े की खरीद के लिये कपडे की दुकान की जानकारी करके उसपर ही पहुँचना होगा । इसके विना बाज़ार मे वडी-बडी, सजी हुई और सुन्दर दूसरी दुकानों पर कपटे के लिये पूछते फिरना क्‍या लाभ देगा ? कुछ नही । सोने-चादी की, वरतनो की अथवा अन्य दुकानो पर क्या उसे कपडा मिरु सकेगा ? इसी प्रकार शाति और सतोष को पाने के लिये मनुप्य को अपनी आत्मा में ही उनकी खोज करनी होगी। अपने आपको समभना होगा, लोभ और तृष्णा पर विजय प्राप्त करनी होगी । चाणक्य ने कहा भी है -- सतोषामृततृप्तानां यत्सुख जान्तचेतसाम्‌ । न॒ च तदननुन्धानामितस्वेतक्च धावत्ताम्‌ || अर्थात्‌ सतोष रूपौ अख्रतसे व्रृष्तजनोकोजो शाति गौर सुख मिलता है, वह्‌ धन के लोभियो को, जो इधर-उधर दौडा करते हैं, नही प्राप्त होता । सच्चा धन सतोष ही है। विलासिता तो दरिद्रता है जो कृत्रिमता के आवरण भे छिपी रहती है - 000660৮0626 18 08081 ৬6৪10251015 87010621 0০0৬০: इसलिये विवेकी पुरुष भौतिक वम्तुओ के आकर्षण से अपने को वचाकर अपने मात्मिक-धरन शाति जौर सतोष की रक्षा ओर उनका विकास करता है। धन-दौलत से सुख ओर जाति प्राप्त करने की इच्छा करना म्ग-मरीचिका से प्यास बुकाने के समान है।च तो घन के होने पर शाति मिलती है और न उसके अभाव में ही । अमरीका सव देणोमे अधिक धनवान्‌ देल दै किन्तु क्या वहाँ के व्यकित शाति का अनुभव करते हैं ? नहीं । धनी को और अधिक घन पाने की तथा सम्नाद को अपने साम्राज्य का अधिकाविक विस्तार करने की लालसा बनी रहती है । ग्ससे सावित होता है कि निर्धन घन प्राप्त करने के लिये दुखी रहता টাল লী আকার है और धरनी अपने घन का और अधिक बटाने के लिये व्याकुल रहता दै ।




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