पंचसंग्रह | Panchsangrah

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १६ ) किसान, कुम्हार, ब्राह्मण, सुनार, माली आदि सभी कौम के व्यक्ति आपकश्री को राजा कर्ण का अवतार मानने लग गये और आपश्नी के प्रति श्रद्धावनत रहते । यही है सच्चे सत की पहचान, जो किसी भी भेदभाव के विना मानव मात्र की सेवा मे रुचि रखे, जीव मात्र के प्रति करुणाशील रहे । इस प्रकार त्याग, सेवा, सगठन, साहित्य आदि विविध क्षेत्रो में सतत प्रवाहेशील उस अजर-अमर यशोधारा में अवगाहन करने से हमे मद्धरकेसरी जी म० के व्यापक व्यक्तित्व की स्पष्ट अनुभूतिया होती है कि कितना विराट्‌, उदार, व्यापक ओौर महान था बह व्यक्तित्व । श्रमणसघ गौर मरुधरा के उस महान मत की छत्र-छाया की हमे आज वहत अधिक आवश्यकता थो किन्तु भाग्य की विडम्बना ही है कि विगत वपं १७ जनवरी, १९५४, वि० स० २०४०, पौप सुदि १४, मगलवार को वह दिव्यज्योति अपना प्रकाश विकीर्णं करती हुई इस धराधाम से ऊपर उठकर अनन्त असीम मे लीन हो गयी थी । पूज्य मरुधरकेसरी जी के स्वगंवास का उस दिन का इष्य, शव- यात्रा मे उपस्थित अगणित जनसमुद्र का चित्र आज भी लोगो की स्मृति में है और शायद शताब्दियो तक इतिहास का कीतिमान वनकर रहेगा । जंतारण कै इतिहास मे क्या, सम्भवत राजस्थान के इतिहास मे ही किसी सन्त का महाप्रयाण और उस पर इतना अपार जन-समूह (सभी कौमो और सभी वर्ण के) उपस्थित होना यह पहली घटना थी । कहते है, लगभग ७५ हजार की अपार जनमेदिनी से सकुल शव- यात्रा का वह जलूस लगभग ३ किलोमीटर लम्बा था, जिसमें लगभग २० हजार तो आस-पास व गावो के किसान वधु ही थे, जो अपने ट्‌ क्टरो, वलगाडियो आदि पर चढकर अये थे। इस प्रकार उस महा- पुरुप का जीवन जितना व्यापक गौर विराट रहा, उससे भी अधिक व्यापक और श्रद्धा परिपूर्ण रहा उसका महाप्रयाण | उस दिव्य परुष कै श्रीचरणो मे शत-णत वन्दन । --भीचन्द सुराना सरतः




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