काव्यालोचन | Kavya Lochan

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Kavya Lochan by शम्भूदयाल सक्सेना - Shambhudayal Saxena

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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काव्यालोचन १२ मे धुलकर प्रकट हयै से प्रतीत होते हैँ । उनकी रसक्नता शारीरिक व्यवधान कां अतिक्रम करके इन्र यजन्य-वासना से ऊपर उट जाती है। वह ऐसा अलोकिक वातावरण छनन करती है, जिसमें साँस लेने में रूप-सोष्ठव तो रहता है, परंतु कोरी ऐन्द्रियता का तिरोभाव हो जाता है; प्रेम के निगृढ़ मकरन्द की सुरभि ओर सुषमा तो कहीं नहीं जाती परंतु उसकी उद्दाम वासना के पार्थिव वर्णेगंध” का पता नहीं रह जाता । उनकी निम्न पंक्तियों में उनकी रसज्ञता पंख पसारकर साहित्य के आकाश को छाये हुये है, तो भी कया सहृदयों का हृ दय-अ्र मर अघाता है ? उसकी तषा अतृप्त रह जाती है, पर वह तुलसी को उनकी कृति के लिए साधुवाद दिये बिना नहीं रहतो | सीता, राम ओर लक्ष्मण वनवीथियों मे चले जा रहे हैं । पाश्वे- वर्ती ग्रामों के स्त्री-पुरुष अनूप-रूप राजकुमारों के दशेनाथे दौड पड़ते हैं । ग्रामवघुएँ साहस करके अपनी सहज सरलता से जानकी जी से पूछती हैं, ओर वे उनको किस प्रकार उत्तर देती हैं, इस विषय का दिग्दशन तुलसीकी विद्र्ध वाणी मे इस प्रकार हुआ है-- कोटि मनोज लजावनदारे | सुमुखि कद्दहु को अहृहिं तम्दारे। सुनि सनेहमय मंजुल वानी | सकुच सोय मन मेँह मसुकानी । तिनिद्धि बिलोकि विलोकति धरनी। दु'हु सकोच सकुचत बरबरनी | सङ्कु चि समरेम बाल-मुग-नयनी } बोली मधुर बचन पिकबयनी | सहज सुभा सुभग तन गोरे | नाम लखन लघु देवर मोरे। बहुरि बदनबिधु अंचल ढांकी | पिय तन चिते भौद्द करि बांकी | खंजन मंजु तिरी नयननि | निजपति कदेउ तिहर सिय सेननि |




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