संस्कृति व्याकरण | Sanskarit Vyakaran

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Sanskarit Vyakaran by कपिलदेव द्विवेदी - Kapildev Dwivedi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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च्याकरण-शास्त्र का इतिहास १५ (তি) प्राचीन अअन्थों सें उल्लिखित १७ आचार्य :--१. शिव,, “( महेश्वर ), बृहस्पति, ३. इन्द्र, ४. वायु, ५. मरद्वाज, ६. भागुरि, ७. पीष्करसादि, ८. काझ- त्स, ९. रौदि, १०. चारायण, १९. माध्यन्दिनि, १२. वेयाघ्प्, १३. गोनकि ९४. गौतम, १५. व्याडि 1 (ग) १० पात्तिशाख्य :--१. ऋकप्रातिशाख्य (शानककृत), २. वाज़सनेयप्राति० ( कात्यायनक्ृत ), ३. सामप्रातिशाख्य ( पुष्पसन्न ), ४. जथवप्राति०, ५, तैत्तिरीय সারিঞ, ছ. मैत्रायणीय०, ७. आख्वलायन०, ८. बाप्कल०, ९, शांखायुन॒०, १०. चारायण० | ছে) ও জল্য बेदिक व्याकरण :--१. ऋकतस्त्र ( झाकआयन या औदमजिक्ृत ), २. ल्घु ऋकतन्प, ३. अथवं॑चत॒रध्यायी (शौनक या कौत्स-कृत ), ४,प्रतिशासत्र ( कात्यायनक्ृत ), ५. भाषिकसन्न ( काल्यायनक्ृत ), ६. धमतम्त्र ( ऑदबजिया गार्ग्य कृत ), ७. अक्षरतन्त्र ( आपिशलिकृत ) । (ड) प्रातिशाख्य भादि में उद्वत ५६ आयार्य' :--इनमें विशेष उल्लेखनीय आचार्य ये है --१. अग्निवेश्य, २. आगस्त्य, ३. आज्ेय, ४, इन्द्र, ५, औदबजि ६. कात्यायन, ७. काप्व, ८. काइयप, ९. कौण्डिन्य, १०. गार्ग्य, ११, गौतम, १२. जातुकर््, १३. तैत्तिरीयक, १४ पंचाल, १५. पाणिनि, १६. पौष्करसादि. १७. बाभ्रव्य, १८, बृहस्पति, १९. ब्रह्मा, २०. भरद्वाज, २१. भारद्वाज, २२. माष्टूकेय, २३. माध्य. न्दिन, २४. मीमांसक, २५. यास्क, २६. वाल्मीकि, २७, बेदमित्र, २८. व्याडि, २९, शाकणयन, ३०. शांकठ, ३१, शाकस्य, ३२. शाखायन, ३३. झौनक, ३४. हारीत । इनमें से कुछ नाम पुनरुक्त हैं, उनकी गणना नहीं की गई है। इनमें से अधि- काश का केवल नामोस्लेख मिलता है | विशेष कुछ भी विवरण प्राप्त नहीं होता है । < प्रकार के व्याकरण प्राचीन समय में ८ प्रकार के व्याकरण प्रचलित थे, ऐसा अनेक स्थानों पर उल्लेख मिलता है--व्याकरणमश्प्रमेदम्‌ ( हुर्ग, निरक्तवृत्ति ० ७४ )। परन्तु ये ८ प्रकार के व्याकरण कौन से थे, इस विषय में ऐकमत्य नहीं है। एक स्थान पर निम्नलिखित ८ व्याकरणों का उल्लेख मिलता ह-न्राक्म, ऐशञान, ऐमज्द्र, 'प्राजापत्य, নাত; লাছু। আদিহাল और पाणिनीय” । वोपदेव ने कविकरसपदरुम के प्रारम्पमे ९, दिदोप विवरण के लिये देखो--संस्छृत व्याकरणजाख चा इत्तिहास्न भाग, ३, पष्ट ६९ सं ५२ ५ १०, वा्वमेयानमेन्दे' च प्राजापत्यं बृदस्पतिम्‌ । त्वाप्रमापिशल चेति पाणिनीयमथाष्टमम्‌ ॥ ( हैमइददुइृत्यववचूणि, एष्ट ३)




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