गृहस्थधर्म (द्वितीय भाग) | Grahastdharm (Dwitiya Bhaag)

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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_नवाहर किरणावली | [ ३ मन सहित वाशी के यथाथं होने को नाम सत्य! है । यानी जैसा देखा, समका और सुना है, दूसरे को कहते समय मन और वाणी का ठीक वैसा ही प्रयोग हो, उसे 'सत्य” कहते हैं। देख, सुन ओर सममकर सम्यक प्रकार-से जो बाव अपनी समर में आयी है, ठीक वही सुनने वाले की मी ससस मे यावे, उसका नाम (सत्य! है ¦ जिसके द्वारा अवास्तविक बात, विचार पौर कायं का विरोध होता है, तथा जिसके प्रकट हो जाने पर अवास्तविक विचार, बात आर कार्य नहीं ठहर सकते हैं, उसे 'सत्य” कहते है अर्थात्‌ वास्तविक विचार, बात चौर कायं दी सत्य है । सहासारत में कहा हैः-- अविका रितम॑ सत्य॑ सर्वेवर्णपु भारत । सभी वर्शे मे सदा विकार रहित रदे वाले का नाम ही सत्य! है। सत्य की मूर्तिं किसी पाषाण की बनी हुई नहीं होती है, न इसका कोई स्थान ही नियत है । यह देह में स्थित जीव के समान सच जगह मौजूद है । कोई वस्तु या स्थान ऐसा नहीं हे जहाँ सत्य न हो। जिस वस्तु से सत्य नहीं है, वह वस्तु किसी काम की नहीं रहती और उसका नाम भी घदल जाता है। जैसे सूयं में सत्य वस्तु प्रकाश! है । यदि सूयं में से प्रकाश निकल जाय, तो उसे सू् कोई न कहदेगा । दूध मे सत्य वस्तु 'घृत' है। यदि घृत निकल जाय तो उसे दूध कोई न कहेगा | तोत्पय यह है कि 'सत्यः उस स्वाभाविक ओर वास्तविक चस्तु का नाम है, जिसके होने पर किसी बस्तु विचार कायं आदि के नाम, रूप तथा शुरु में परिवतेन न हो सके ओर जिसके न रहते पर थे तीनों या इनमें से कुछ बातें बदल जाएँ । स्वभावतः सनुष्य के हृद्य मे एक से एक उत्तम गुण विद्यमान सौखने ৯৬ এ জি हैं उत्तम गुण सीखने के लिए मनुष्य फो कही जाना नहीं पड़ता, वे तो सवंधा स्वाभाविक होते है | यदि मनुष्य कुसंग में पदु कर बुरी




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