पत्थर युग के दो बुत | Patthar Yug Ke Do But
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2 MB
कुल पष्ठ :
180
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about आचार्य चतुरसेन शास्त्री - Acharya Chatursen Shastri
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)प्रंत में हंसी पौर घागुप्ों का गठबघन हो गया र्वै हमनी भो, रोतो
और । प्यार शए दर भज मेरी णेमारी बन गया । पर इसका इसाज क्या
पारे
फिर दूसरा बर्थ प्राया, घौर वे पांघ सो रुपये मेरे हाथों में थमा-
हर घस दिए + पने र्दा. शुनो, वेषे, शटा, क्या?
“शुप्हारे हाथ जोडदो हूँ । इस बार यहां हिक मत बरना 1!
“प्रष्छा ! बहुरर पे तेजी से चल दिए । उनवा इस तरह जाना,
“मच्छा' कहना मुझे इुछ माया नहीं-- न जाते क्यो किसी प्रशात भय
ने मेरा मन मधोस दिया। मैं दाज़ार गई, सब साम(न लाई। भन में
उछाह भी था, घोर भय भी था। म जाने धराज को रात कँसे थीतेगी?
दिएते साल को सर शाते शाद प्रा रही थीं, भोर में रा कलेजा बप रहा
था। फिर भी पैं पश्त्रवत् सबर्तयारी कर रही थी।
सेहमान घाने लगे पर उनका बहीं पता न था । मेरे पैरो के नीचे से
घरती खिसक रही थो ) छोग हस-हँसफ़र बधाइय! दे रहे ये, चूहल फर
रहे थे। मुझे उनके साय हूंसना पडता था, पर दिस मेरा रो रहा था।
यह तो बिना दूल्हे की दरात थी। बड़ी देर में घाए उनके भ्रस्तरंग पत्र
'दिलीपकुमार । धागे बढ़कर उन्होंने सब मेहमानों बे सम्बोधित करके
कहा, “बस्थुप्ो भौर बहतो; बड़े खेद की बात है कि एक पशत्यावश्यक
सरशारी काम में थ्यस्त रटे के कारण दत्त साहेव इस सप्रय हमारे
च उपस्थित नही हो सयते है । उन्होंने क्षमां मांगी है भ्रौर अपने
সবিনিঘিহন युके भरताहि। दव खारए-पीविष् मित्रो 1”
তপন कहरूर वे मेरे वास गाए । मुझे तो काठ मार गया। मैंने
कहा, वपा हभ?
“शुद्ध चात नहीं मानौ, उ वटूते जरूरी काम निकल श्राया।
লাদী, মব ₹দ লীম सेहसानों का मतोर॑जन करें, जिससे उन्हें भाई
सांहब को गे रहाडिरी धखरे नहीं ।”” झौर वे तेजी से भीड में घुसकर
लोगो को प्रावभपत में संग गए । निद्याय हो छाती पर पत्थर रखकर
मुझे भी यह करना पडा । पर मैं ऐसा ग्रदुमव कर रही थी जैसे मेरे
जरौर का सार रक्त निघुड यया हो, झोर मैं मर रही हू ।
जैसे-तेसे मेहमान बिदा हुए । मूने घर में रह गए हम दो--दिलोप-
के 405
User Reviews
No Reviews | Add Yours...