मंजरी | Manjari

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नर्मदा प्रसाद खरे - Narmada Prasad Khare

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पदुमलाल पुन्नालाल बक्शी - Padumlal Punnalal Bakshi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ७) “ओहो पुरुषोत्तम बाबू ! इतने दिलों में ? मिनी कैसी है ?” पुरुपात्तम बाबू न कहा हूं भा ता आयी हैं ।? तब तो मैं पुरुषोत्तम बाबू को छोड़ कर भोतर चला गया। देखा तो मिनी कमला के साथ बैठी हुई है । मित्री ने प्रणाम किया। मैंने उसे अन्नःकरण से आशीवाद दिया । बड़ी देर तक हम लोग बैठे रहे। इधर-उधर की खुब गप्पे' होती रहीं । ६१ बजे हम लोग सोने गमे । दूसरे दिन मैं बाहर कुरसी डालकर बैठ गया। पुरुषोत्तम बाबू अभी तक सो रहे थे। मैंने स्टेश्समेन उठा लिया। थोड़ी देर बाद मैं फिर कुएँ की आर देखने लगा । आज भी घहाँ स्त्रियां की बसी ही भीड़ थी । आज भी सलती गगरी लिये बैठी थी। इतने में कल्न की ही लकड़ीवाली फिर उधर स निकल पडी । मालती ते उसे पुकार रर कहा-- यो लकड़ी बाली ! कल तूने पैसे नही लिये ? बह कहने लगी “बहुत, आज भी लकड़ी त्ञायी हूँ । इन्हें भी मोल हे ला। दानों का दाम साथ ही ले लू गी |? मात्षती मे कदा--“अ्रच्छा |” तन म पुरुषोत्तम बाबू आ गये। मै उनसे गप्पे मारने लगा। गड देर मे भी से हल्ला हुआ । हम लोग घबरा कर भीतर दादे । देखा लकड़ी पाली + भाला ने पकड़ लिया है | मालता आदि और चार-पाँच स्लरियाँ इबर-उघर खड़ी थीं! मुझे देखकर सब चुप हो गयीं | मैंने पूछा--'माजरा क्या है ?” मालती कहने लगी --“बाबू में इस लकड़ीवाली के पैसे लाने के लिए मीतर गयी । लोठने पर देखती हूँ कि यह नहीं है । इतने में अ।पक्रे कमरे से कुछ आवाज़ आयी। मै चोर । चोर ! कह कर चिल्लाने लगी । जब भोला श्राया; तव यह्‌ आपके कमरे में पकड़ी गयी ।”




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